________________
( ९१ )
अपने पात्रों में तथा अपने ही घर पर उनके पात्रोंमें भोजन हो जाय अथवा शूद्रके घर पर बैठकर - चाहे वह सम्यग्दृष्टि और व्रतिक जैनी ही क्यों न हो - कुछ खालिया जाय तो इस पापकी शांति के लिए तुरन्त दो हजार संख्या प्रमाण जाप्यके साथ पाँच उपवास करने चाहिए !!! पाठको, देखा, कैसा धार्मिक उपदेश है ! घृणा और द्वेषके भावोंसे कितना अलग है। परोपकारमय जीवन विताने तथा जगत्का शासन, रक्षण और पालन करनेके लिए कितना अनुकूल है ! सार्वजनिक प्रेम और वात्सल्यभाव इससे कितना प्रवाहित होता है । और साथ ही, जैनधर्मके उस उदार उद्देश्य से इसका कितना सम्बंध है जिसका चित्र जैनग्रंथोंमें, जैन ती - चैकरोंकी 'समवसरण ' नामकी सभाका नकशा खींचकर दिखलाया जाता है !! कहा जाता है कि जैन तीर्थकरों की सभा में ऊँच-नीच के भेदभावको छोड़कर, सब मनुष्य ही नहीं बल्कि पशु-पक्षी तक भी शामिल होते थे । और वहाँ पहुँचते ही वे आपस में ऐसे हिलमिल जाते थे कि अपने अपने जातिविरोध तक को भी भुला देते थे । सर्प निर्भय होकर नकुल के पास खेलता था और बिल्ली प्रेमसे चूहेका आलिंगन करती थी । कितना ऊँचा आदर्श और कितना विश्व-प्रेममय-भाव है ! कहाँ यह आदर्श ? और कहाँ संहिताका उपर्युक्त विधान ? इससे स्पष्ट है कि संहिताका यह सब कथन जैनधर्मकी शिक्षा न होकर उससे बहिर्भूत है । जैन तीर्थकरों का कदापि ऐसा अनुदार शासन नहीं हो सकता । और न जेनसिद्धान्तों से इसका कोई मेल है । इस लिए कहना होगा कि उपर्युक्त प्रकारका संपूर्ण कथन दूसरे धर्मोंसे उधार लेकर रक्खा गया है। और यह किसी ऐसे संकीर्ण हृदय व्यक्तिका हृदयोद्वार है जिसने शुद्धि और अशुद्धिके तत्त्वको ही नहीं समझा * । निःसन्देह जबसे, कुछ महात्माओंकी
* लेखकका विचार है कि शुद्धि-तत्त्व-मीमांसा नामका एक विस्तृत लेख लिखा जाय और उसके द्वारा इस विषय पर प्रकाश डाला जाय । अवसर मिलने पर उसेक लिए प्रयत्न किया जायगा ।