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(८९) तो भी उमास्वामिश्रावकाचार जैसे जाली ग्रंथोंमें जिनमंदिरके लिए गौ-दान करनेका विधान जरूर पाया जाता है, जिससे अर्हद्भट्टारकके लिए रोजाना शुद्ध पंचामृत तैयार हो सके.* । आश्चर्य नहीं कि ऐसे ही किसी आशयसे प्रेरित होकर, उसकी पूर्तिके लिए, उपर्युक्त दंड-विधानमें तथा इसी ग्रंथके अंतर्गत और भी बहुतसे दंडप्रयोगोंमें गोदानका विधान किया गया हो । अस्तु इसी प्रकार इस अध्यायमें कुछ दंड-विधान ऐसा भी देखनेमें आता है जिसमें 'अपराधी कोई और दंड. किसीको। अथवा 'खता किसीकी सजा किसीको' इस दुर्नीतिका अनुसरण किया गया है । जैसे आत्महत्या (खुदकुशी ) का दंड आत्मघातीके किसी कुटुम्बीको, इत्यादि।
संकीर्ण हृदयोगार। (९) अब इस प्रायश्चित्ताध्यायसे दो चार नमूने ऐसे भी दिखलाये जाते हैं, जो जैनधर्मकी उदार नीति के विरुद्ध हैं । यथाः
१-" अनातान स्पृशेत्सर्वान् नातानपि च शूद्रकान् । कुलालमालिकदिवाकीर्तिक्रिकुविंदकान् ॥ ४५ ॥ २-मातंगश्वपवादीनां छायापतनमात्रतः ।
तदा जलाशय गत्वा सचेलनानमाचरेत् ॥ ५६॥ १.यह ग्रंथ परीक्षा द्वारा जाली सिद्ध किया जा चुका है। देखो जैनहितैषी दसवाँ भाग अंक १-२। * जैसा कि निम्न वाक्योंसे प्रगट है:
"-पुप्पं देयं महाभक्त्यान तु दुष्टजनैधृतम् ॥२-१२९॥ पयोथै गौ जलाथै वा कुंप पुष्पसुहेतवे । वाटिकां संप्रकुर्वश्च नाति दोषधरो भवेत् ॥-१३०॥"