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सबके लिए एक ही दंड। (७) उक्त 'प्रायश्चित्त' नामके अध्यायमें ब्रह्महत्या, गोहत्या, स्त्रीहत्या, बालहत्या और सामान्य मनुष्यहत्या, इन सब हत्याओं से प्रत्येक हत्या करनेवालेके लिए एक ही प्रकारका दंड तजवीज किया गया है। यथाः
'ब्रह्महत्या-गोहत्या-स्त्रीहत्या-बालहत्या-सामान्यमनुष्यहत्यादि, करणे प्रायश्चित्तं उपवासाः त्रिंशत् ३०,
एकभक्कानि पंचाशत् ५०, कलशाभिषेकौ द्वौ । परन्तु जैनधर्मकी दृष्टिसे इन सभी अपराधोंके अपराधी एक ही दंडके पात्र नहीं हो सकते । प्रायश्चित्तसमुच्चयकी चूलिकामें भी गोहत्यासे स्त्रीहत्या, स्त्रीहत्यासे बालहत्या, ‘बालहत्यासे श्रावक-हत्या और श्रावकहत्यासे साधुहत्याका प्रायश्चित्त उत्तरोत्तर अधिक बतलाया है । यथा:
" साधूपासकवालस्त्रीधेनूनां घातने क्रमात् ।
यावद्वादश मासाः स्याषष्ठमर्धिहानियुक् ॥ ११ ॥ ऐसी हालतमें संहिताका सबके लिए उपर्युक्त एक ही प्रकारका दंडविधान करना जैनधर्मकी दृष्टिके अनुकूल प्रतीत नहीं होता।
प्रायश्चित्त या अन्याय । (८) इसी प्रायश्चित्ताध्यायमें गृहस्थोंके लिए बहुतसा ऐसा दंड-विधान भी पाया जाता है जो आकस्मिक घटनाओंसे होनेवाली मृत्युओंसे सम्बंध . x इस पद्यमें मुनियों द्वारा ऐसी हत्या हो जाने पर उनके लिए प्रायश्चित्तका विधान किया है । श्रावकोंके लिए इससे कमती प्रायश्चित्त है । परन्तु वह भी उत्तरोत्तर इसी क्रमको लिये हुए है । जैसा कि उक्त चलिकाके इस पद्यसे प्रगट है:
"श्रमणच्छेदनं यच्च श्रावकानां तदेव हि । . द्वयोरपि त्रयाणां च षण्णामधिहानितः ॥ १३७ ॥