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धके लिए दोनों भागों में भिन्न भिन्न प्रकारका दंडप्रयोग किया गया है। और जो इस बातको भी सूचित करता है कि ये दोनों भाग किसी एक व्यक्तिके बनाये हुए नहीं हैं । इस प्रकारके कथनोंका एक नमूना इस प्रकार है:
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" गर्वान्मांसं च मद्यं च क्षौद्रं सेवितवानसौ ।
एकशः क्षपणं तस्य विंशत्यभ्यधिकं शतम् ॥ २२ ॥ प्रमादादुपवासाः स्युर्विंशतिर्दोषहानये । "
इस डेढ़ पद्यमें गर्वसे मद्य, मांस और मद्य नामक तीन मकारोंके सेवनका प्रायश्चित्त १२९ उपवास प्रमाण और प्रमादसे उनके सेवनका प्रायश्चित्त सिर्फ २० उपवास प्रमाण लिखा है। अब गद्य भागको देखिए:--
“ मकारत्रयसेवितस्य प्रायश्चित्तं विद्येत - उपवासा द्वादश १२, अभिषेकाः पंचाशत् ५०, आहारदानानि पंचाशत् ५०, कलशाभिषेक एकः १, पुष्पसहस्रचतुवैिशतिः २४०००, तीर्थयात्रा द्वे २, गंधं पलचतुष्टयं ४, संघपूजा, गद्याण ? त्रय सुवर्ण ३, वीटिका शतमेकं कायोत्सर्गाचतुर्विंशतिः । यदि प्रमादतः मकारत्रय• सेविता उपवासषटुं ६, एकभताष्टकं, पंचविंशत्याहारदानानि २५, पंचविंशतिरभिषेकाः २५, पुष्पसहस्राणि पंच ५०००, गंधं पलद्वयं २, पूजा द्वादश १२. ताम्बूलवीटक पंचाशत् ५०, कायोत्सर्गा
द्वादश १२ ॥
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यह कथन पहले कथनसे कितना विलक्षण है, इसे बतलाने की जरूरत - नहीं है । पाठक एक नजर डालते ही स्वयं मालूम कर सकते हैं । हाँ प्रायश्चित्त- समुच्चयका इस विषयमें क्या विधान है ? यह बतला देना जरूरी है । और वह इस प्रकार है:
" रेतोमूत्रपुरीषाणि मद्यमांसमधूनि च ।
अभक्ष्यं भक्षयेत्पष्ठं दर्पतश्च द्विषट् क्षमाः ॥ १४७ ॥
इसमें दर्पसे मद्य, मांस और मधुके सेवनका प्रायश्चित्त बारह उपवास प्रमाण बतलाया है और प्रमादसे उनका सेवन होनेमें ' षष्ठ' नामंका प्रायश्चित्त तजवीज किया है, जो तीन उपवास प्रमाण होता है ।