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नामकी क्रियायें नहीं, हैं, लिखा है कि प्रीति' क्रिया गर्भसे तीसरे महीने और सुप्रीति क्रिया पाँचवे महीने करनी चाहिए। साथ ही, यह भी लिखा है कि उक्त ५३ क्रियाओंसे भिन्न जो, दूसरे लोगोंकी मानी हुई, गर्भसे मरण तककी क्रियायें हैं वे सम्यक् क्रियायें न होकर मिथ्या. क्रियायें समझनी चाहिए । यथाः
" गर्भाधानात्परं मासे तृतीये संप्रवर्तते । प्रीतिर्नामि किया प्रीतैर्याऽनुष्टेया द्विजन्मभिः ॥ ३८.७७ आधानात्पंचमे मासि क्रिया सुप्रीतिरिष्यते । या सुप्रीतः प्रयोक्तव्या परमोपासकवतैः ।।-८० ॥ क्रिया गर्भादिका यास्ता निर्वाणान्ताः पुरोदिताः ।
भाधानादिस्मशानान्ता न ताः सम्यक्रिया मताः ३९-२५॥ इससे साफ जाहिर है कि संहिताका उक्त कथन आदिपुराणके कथनसे विरुद्ध है। और उसकी 'पुंसवन' तथा 'सीमंत' नामकी दोनों क्रियायें भगवन्जिनसेनके वचनानुसार मिथ्या क्रियायें हैं । वास्तवमें ये दोनों क्रियायें हिन्दु धर्मकी क्रियायें ( संस्कार ) हैं। हिन्दुओंके धर्मग्रंथोंमें इनका विस्तारके साथ वर्णन पाया जाता है। पुंसवन सम्बंधी क्रियाका अभिप्राय उनके यहाँ यह माना जाता है कि इसके कारण गर्भिणीके गर्भसे लड़का पैदा होता है । परन्तु जैनसिद्धान्तके अनुसार, इस प्रकारके संस्कारसे, गर्भमें आई हुई लड़कीका लड़का नहीं बन सकता। इस लिए जैनधर्मसे इस संस्कारका कुछ सम्बंध नहीं है।
दंडमें मुनि-भोजन-विधान । , (५) इस संहिताके प्रथम खंडमें 'प्रायश्चित्त' नामका एकः अध्याय है, जिसके दो भाग हैं-पहला पद्यभाग और दूसरा गयभाग ।।