________________
(८२) पीडाका देनेवाला होता है' 'कृष्ण चंद्रमा शूद्रोंका विनाश करता है' यथाः--
" समवण्णो समवण्णं भयं च पीडं तहा णिवेदेहि। . लक्खारसप्पयासो कुणदि भयं सव्वदेसेसु ॥ ३६॥ .
किण्हो सुद्दविणासइ......"चंदो ॥ ३८॥ चंद्रफलादेश-सम्बंधी यह कथन पहले कथनके विल्कुल विरुद्ध है-वह सुख होना कहता है तो यह दुःख होना बतलाता है-समझमें नहीं आता कि ऐसी हालतमें कौन बुद्धिमान् इन कथनोंको केवली या श्रुतकेवलीके वाक्य मानेगा? वास्तवमें ऐसे पूर्वीपर-विरुद्ध कथन किसी भी केवलीके वचन नहीं हो सकते। अस्तु। ये तो हुए पूर्वापर-विरुद्ध कथनोंके. नमूने । अब आगे दूसरे प्रकारके विरुद्ध कथनोंको लीजिए।
मिथ्या क्रियायें। (४) संहिताके द्वितीय खंड-विषयक अध्याय नं. २७ में लिखा है कि 'प्रीति' और 'सुप्रीति । ये दो क्रियायें पुत्रके जन्म होने पर करनी चाहिए। साथ ही, जन्मसे पहले 'पुंसवन' और 'सीमन्त ' नामकी दूसरी दो क्रियाओंके करनेका भी विधान किया है । यथाः
"गर्भस्य त्रितये मासे व्यक्त पुंसवनं भवेत् । गर्ने व्यक्त तृतीये चेचतुर्थे मासि कारयेत् ॥१३९॥ अथ षष्ठाष्टमे मासि सीमन्तविधिरुच्यते । केशमध्ये तु गर्मिण्याः सीमा सीमन्तमुच्यते॥ १४२॥ । पुत्रस्य जन्मसंजातौ प्रीतिसुप्रीतिके क्रिये।
प्रियोद्भवश्च सोत्साहः कर्तव्यो जातकर्मणि ॥ १४९ ॥ परन्तु भगवजिनसेनप्रणीत आदिपुराणमें गर्भाधानसे निर्वाण पर्यंत ५३ क्रियाओंका वर्णन करते हुए, जिनमें उक्त 'पुंसवन' और 'सीमन्ता.
१ गर्भवतीके केशोंकी रचना-विशेषमाँग उपाड़ना