Book Title: Granth Pariksha Part 02
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 88
________________ (८०) दृष्ट्या महान्तं यो दोनिष्ठीवति हसेच्च वा । चतुर्वर्णेषु यः कश्चिदंच्यते दश राजतैः ।।-१९॥" इन पयों से पहले दो पद्योंमें लिखा है कि 'यदि क्षत्रिय तथा ब्राह्मणके आसन पर कोई वैश्य अथवा शद्र बैठ जाय तो वैश्यको २० और शूद्रको ५० चाबुककी सजा देनी चाहिए! तीसरे पद्यमें किसी भी वर्णके उस व्याक्तिके लिए धनदंडका विधान किया गया है जो किसी महान पुरुषको देखकर हँसता है अथवा घृणा प्रकाश करने रूप थूकता है। उपर्युक्त नियमानुसार इन दोनों प्रकारके कृत्योंके लिए यदि कोई दंडविधान हो सकता था तो वह सिर्फ वाग्दंड था । क्योंकि आसन पर बैठने और हँसने आदि कृत्योंका चोरी आदि अपराधोंमें समावेश नहीं हो सकता । परन्तु यहाँ पर ऐसा विधान नहीं किया गया; इस लिए यह कथन भी पूर्वापर-विरोध-दोषसे दूषित है। " मूर्खः सारथिरेव स्याधुग्यस्था दंडभागिनः । भूपः पणशतं लाला हानिमीशं च दापयेत् ॥६--३५ । । इस पद्यमें, मूर्ख गाड़ीवानके कारण गाड़ीसे किसीको हानि पहुँचने पर, गाड़ीमें बैठे हुए उन स्त्री-पुरुषोंको भी धनदंडका पात्र ठहराया है जो बेचारे उस गाड़ीके स्वामी नहीं है और न जिनको उक्त गाड़ीवानके मूर्ख या कुशल होनेका कोई ज्ञान है । समझमें नहीं आता कि उक्त नियमके अनुसार गाड़ीमें बैठे हुए ऐसे मुसाफिरोंको कौनसे अपराधकाः अपराधी माना जाय? अस्तु; इस प्रकारके विरुद्ध कथनोंसे इस ग्रंथके कई अध्याय भरे हुए हैं । मालूम होता है कि ग्रंथकर्ताको इधर उधरसे वाक्योंको उठा-. कर रखने में आगे पीछेके कथनोंका कुछ भी ध्यान नहीं रहा; और इससे उसका यह संपूर्ण दंड-विषयक कथन कुछ अच्छा व्यापक और सिलसिले चार भी नहीं बन सका।

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