Book Title: Granth Pariksha Part 02
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 87
________________ कविसमान भी प्राणिया (७९) इन दोनों पद्योंमें चारेके लिए बंदिग्रह (जेलखाना) की सजा बतलाई गई है। पहले पद्यमें यह सजा कुलीन मनुष्यों, वालक-बालिकाओं और उत्तम रत्नोंको चुरानेके अपराधर्मे तजवीज की गई है। दूसरे पद्यमें लिखा है कि जो यज्ञोपवीत (जनेऊ) आदिके लिए सस्कृत किये हुए सूतके डोरोंको चुराता है, राजाको चाहिए कि उसे एक महीने तक कैदमें रक्खे । चोरीके काममें धनदंडका विधान न करके यह दंड तजवीज करना भी उपयुक्त नियमके विरुद्ध है। " केशान् ग्रीवो च नृपणं क्रोधागृहाति यः शठः । दंग्यते स्वर्णनिष्केण प्राणिघाताभिलोलुपः ॥ ६-२०॥ त्वम्भेत्ता तु शतैर्देव्यः ग्रामणोऽसमच्यावने । शतद्वयेन दन्यः स्यात्तुर्मासापकर्षकः ॥ -२१ ॥ इन दोनों पद्योंमें प्राणिघातकी इच्छासे क्रोधमें आकर दूसरेके केश, गर्दन और अंडकोश पकड़नेवाले व्यक्तिको, तथा त्वचाका भेद करनेवाले, रक्तपात करनेवाले और मांस उखाड़नेवाले ब्राह्मणको शारीरिक दंडका विधान न करके धनदंडका विधान किया गया है । यह भी उपर्युक्त नियमके विरुद्ध है । इसके आगे तीन पद्योंमें, उद्यानको जाते हुए किसी वृक्षकी छाल, दंड, पत्र या पुष्पादिकको तोड़ डालने अथवा नष्ट कर डालनेके अपराधमें धनदंडका विधान न करके. 'प्रवास्यो वृक्षभेदकः' इस पदके द्वारा वृक्ष तोड़ ढालनेवालेके लिए देशसे निकाल देनेकी सजा तजवीज की है। यह सजा उपर्युक्त नियमसे कहाँ तक सम्बंध रखती है, इसे पाठक स्वयं विचार सकते हैं। "येश्यः शूद्रोऽथवा काटधातुनिर्मित आसने । क्षत्रियद्विजयोर्मोहाद्दा चोपविशेत्तदा ॥ ६-१७ ॥ कशाविंशतिमिर्पश्यः पंचाशद्भिश्व ताज्यते । शूद्रः पुनस्तु सता-(१)मासनं कोऽपिन श्रयेत् ॥-१८॥

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