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तिहासिक दृटिस ) में या अलख नहीं है । हा है कि
कथन ऐतिहासिक दृष्टिसे कुछ सत्य प्रतीत नहीं होता । श्रीगुणभद्राचार्यकृत महापुराण ( उत्तरपुराण) में या उससे पहलेके बने हुए किसी माननीय प्राचीन जैनगंथमें भी इसका कोई उल्लेख नहीं है । हाँ, भगवजिनसेन प्रणीत आदिपुराणमें इतना कथन जरूर मिलता है कि जषभदेवने हा-मा-धिक्कार लक्षणवाला वह वाचिक दंड प्रवर्तित किया था जिसको उनसे पहलेके कुलकर (मनु) जारी कर चुके थे और इस लिए जो उनके अवतारसे पहले ही भूमंडल पर प्रचलित था । साथ ही, उक्त ग्रंथमें यह भी लिखा हुआ मिलता है कि ऋषभदेवके पुत्र भरत चक्रवर्तीने वध-वन्धादिलक्षणवाले शारीरिक दंडकी भी योजना की थी । जिससे पौराणिक दृष्टिकी अपेक्षा यह बात स्पष्ट हो जाती है कि तीसरे शारीरिक दंडका प्रणयन शान्तिनाथसे बहुत पहले प्रायः ऋषभदेवके समयमें ही हो चुका था । यहाँ पाठकोंको यह जानकर आश्चर्य होगा कि आदिपुराणका यह सब कथन संहिताके 'केवल काल ' नामक ३४ x वें अध्यायमें भी पाया जाता है । परन्तु इन सब बातोंको छोड़िए, और संहिताके इस निम्न वाक्य पर ध्यान दीजिए, जिसमें उक्त कथनसे आगे अपराधोंके चार विभाग करके प्रत्यकेके दंड विधानका नियम बतलाते हुए लिखा है कि-'व्यवहारमें वाग्दंड, चोरीके काममें धनदंड, बालहत्यादिकमें देहदंड और धर्मके लोपमें ज्ञाति दंडका प्रयोग होना चाहिए।' न्यथा:*यया:
शारीर दंडनं चैव वध-बन्धादिलक्षणम् ।
नृणां प्रबलदोषेण भरतेन नियोजितम् ॥ २१६ ॥ + जिसका एक पद्य इस प्रकार है:- “ हामाधिग्नीतिमार्गोकोऽस्य पुत्रो भरतोऽप्रजः । चक्री कुलकरो जातो वध-बन्धादिदंडभृत् ॥ १२०॥"
१ इस अध्यायकी शद्वरचनासे मालूम होता है कि वह प्रायः मादिपुराण परसे उसे देखकर क्लाया गया है।
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