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पूर्वापर विरुद्ध। (१) पहले खंडके तीसरे अध्याय, दंडके स्वरूपका वर्णन करते हुए, लिखा है कि
"हा-मा-धिकारभेदश्च वाग्दंडः प्रथमो मतः। द्वितीयो धनदंडश्च देहदंडस्तृतीयकः ॥ २४२ ।। तुरीयो ज्ञातिदंडश्च देयाः कृत्यानुसारतः । दोषानुसारतश्चैव चतुर्वर्णेभ्य एव च ॥ २४३ ॥ आप्तश्रीआदिदेवेन प्रथमो दंड उदृतः । वासुपूज्यो द्वितीयं च तृतीयं षोडशस्तथा ॥ २४४ ॥ तुरीयं वर्धमानस्तु प्रोकवानद्य पंचमे ।
काले दोषानुसारेण दीयते सर्वभूमिपैः ॥ २४५ ॥ अर्थात्-दंड चार प्रकारका होता है। पहला वाग्दंड, जिसके हा, मा, और धिक्कार ऐसे तीन भेद हैं; दूसरा धनदंड, तीसरा देहदंड (वधबन्धादिरूप) और चौथा ज्ञातिदंड (जातिच्युतादिरूप)। ये सब दंढ अपराधों और कृत्योंके अनुसार चारों ही वर्गों के लिए प्रयुक्त किये जानेके योग्य हैं । इनमेंसे पहले दंडके प्रणेता भगवान श्रीआदिनाथ (ऋषमदेव), दूसरेके भगवान् वासुपूज्य, तीसरेके १६ वें तीर्थकर श्रीशांतिनाथ और चौथे दंडके प्रणेता श्रीवर्धमान स्वामी हुए हैं। आजकल पाँचवें कालमें संपूर्ण राजाओंके द्वारा ये सभी दंड अपराधोंके अनुसार प्रयुक्त किये जाते हैं । इस कथनसे ऐसा सूचित होता है कि, तीसरे कालके अन्तसे प्रारमं होकर, चतुर्थ कालमें यह चार प्रकारका दंडविधान उपर्युक्त अलग अलग तीर्थंकरोंके द्वारा संसारमें प्रवर्तित हुआ है। परन्तु वास्तवमें ऐसा हुआ या नहीं, यह अभी निर्णयाधीन है और उस पर विचार करनेका इस समय अवसर नहीं है। यहाँ पर मैं सिर्फ इतना बतला देना जरूरी समझता हूँ कि दंडप्रणयन-संबन्धी यह सब