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गृहे भुंक्त समाचारं करोति तस्य प्रायश्चित्तं उपवासा ९, एकभक्कानि ३...... ताम्बूल वीड़ा ४००।
मालूम होता है कि ग्रंथकर्ताने यह सब कथन किसी ऐसे ही खिचड़ी ग्रंथसे उठाकर रक्खा है और उसे इसको शुद्ध संस्कृतका रूप देना नहीं आया । इससे पाठक ग्रंथकर्ताकी संस्कृतसम्बंधिनी योग्यताका भी बहुत कुछ अनुभव कर सकते हैं। इस तरह पर यह ग्रंथ इधर उधरके प्रकरणोंका एक वेढंगा संग्रह है। ग्रंथकर्ता यह सब संग्रह कर तो गया, परन्तु मालूम होता है कि बादको किसी घटनासे उसे इस बातका भय जरूर हुआ है कि कहीं मेरी यह सब पोल सर्वसाधारण पर सुल न जाय । और इस लिए उसने इस ग्रंथ पर, अपने अन्तिम वक्तव्यमें, यह आज्ञा चढ़ा दी है कि, 'यह संहिता (भट्टारककी गद्दी पर बैठनेवाले ) आचार्यके सिवाय और किसीको भी न दी जाय । मिथ्यादृष्टि और मुढात्माको देनेसे लोप हो जायगा । आगेके लोग पक्षपाती होंगे। यह संहिता सम्यकदृष्टि महासूरि (भट्टारक ) के ही योग्य है, दूसरेके योग्य नहीं है ।' यथा:
संहितेयं तु कस्यापि न देया सूरिभिविना ॥ १५ ॥ मिथ्याविने च मूढाय दत्ता धर्म विलुपति । पक्षपातयुताश्चाने भविष्यति जनाः खलु ॥ १६ ॥ एषा महामंत्रयुता सुप्रभावा च संहिता।
सम्यग्दृशो महासूरेयोग्येयं नापरस्य च ॥ १७ ॥ पाठकगण ! देखा, कैसी विलक्षण आज्ञा है ! धर्मके लोप हो जानेका कैसा अद्भुत सिद्धान्त है ! कैसी अनोखी भविष्यवाणी की गई है ! और किस प्रकारसे ग्रंथकर्ताने अपने मिथ्यात्व, मूढ़ता और पक्षपात पर परदा डालनेके लिए दूसरोंको मिथ्यादृष्टि, मूढ़ और पक्षपाती ठहराया है !! साम्प्रदायिक मोह और बेशरमीकी भी हद हो गई !!! परन्तु कुछ भी हो, इस आज्ञाका इतना परिणाम जरूर निकला है कि समाजमें इस