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इस पद्यमें शनैश्चरचारका कुछ भी वर्णन न देकर सिर्फ उस विज्ञान राजाकी प्रशंसा की गई जो शनैश्चरचारके ' इस कथन ' को जानता है । परन्तु इससे यह मालूम न हुआ कि शनैश्चरचारका वह कथन कौनसा है जिसका यहाँ 'इदं' (इस) शब्दसे ग्रहण किया गया है। क्योंकि अध्याय भरमें इस पद्यसे पहले या पीछे इस विषयका कोई भी दूसरा पद्य नहीं है जिससे इस 'इंद' शब्दका सम्बंध हो सके । इसलिए यह पय यहाँपर बिलकुल असम्बद्ध और अनर्थक मालूम होता है। ग्रंथकाने इसे दूसरे संडके 'शनैश्चर-चार' नामके १६ वें अध्यायसे उठाकर रक्सा है जहाँपर यह उक्त अध्यायके अन्तमें दर्ज है। इसी तरह पर ग्रहाचारसम्बन्धी अध्यायोंके प्रायः अन्तिम पद्य हैं और वहीं उठाकर यहाँ रवखे गये हैं । नहीं मालूम ग्रंथकर्ताने ऐसा करके अपनी मूर्खता प्रगट करनेके सिवाय और कौनसा लाभ निकाला है।
(ङ) पहले खंडमें ' प्रायश्चित्त' नामका दसवाँ अध्याय है । इस अध्यायके शुरूमें, पहले कुछ गद्य देकर 'इदं प्रायश्चित्तप्रकरणमारभ्यते ' इस वाक्यके बाद, ये तीन पद्य दिये हैं; और इनके आगे बरतनोंकी शुद्धि आदिका कथन है:
यथाशुद्धि व्रत्तं धृतोपासकाचारसूचितम् । भोगोपभोगनियनं दिग्देशनियति तथा ॥१॥ . अनर्थदंडविरतिं त्या नित्यं व्रतं क्रमात् । अहंदादीनमस्कृत्य चरणं गृहमेधिनाम् ॥ २ ॥ कथितं मुनिनायेन श्रुत्वा तच्छावयेदमून् ।
पायाद्यतिकुलं नत्वा पुनदर्शनमस्त्विति ॥३॥ . इन तीनों पद्योंका अध्यायके पहले पिछले कथनसे प्रायः कुछ भी सम्बंध नहीं है। तीसरे पद्यका उत्तरार्ध भी शेष पद्योंके साथ असंगत जान पड़ता है। इसलिए ये पद्य यहाँपर असंबद्ध मालूम होते हैं। इनमें लिखा है कि-' उपासकाचारमें कहे हुए भोगोपभोगपरिमाण व्रतको