Book Title: Granth Pariksha Part 02
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 83
________________ (७५) सहिताका अधिक प्रचार नहीं हो सका । और यह अच्छा ही हुआ।अब जो लोग इस संहिताका प्रचार करना चाहते हैं, समझना चाहिए कि, वे अंथकर्ताक उक्त समस्त कूट, जाल और अयुक्ताचरणके पोषक तथा अनुमोदक ही नहीं वाल्क भद्रबाहुश्रुतकेवलीकी योग्यता और उनके पवित्र नामको बट्टा लगानेवाले हैं । अगले लेखमें, विरुद्ध कथनोंका उल्लेख करते हुए, यह भी दिखलाया जायगा कि ग्रंथकर्ताने इस संहिताके द्वारा अपने किसी कुत्सित आशयको पूरा करनेके लिए लोगोंको मार्गभ्रष्ट (गुमराह ) और श्रद्धानभ्रष्ट करनेका कैसा नीच प्रयत्न किया है । १५-११-१६. . इस ग्रंथमें निमित्त और ज्योतिष आदि संबंधी फलादेशका जो कुछ वर्णन है यदि उस सब पर बारीकीके साथ-सूक्ष्म-दृष्टिसे-विचार किया जाय और उसे सिद्धान्तसे मीलान करके दिखलाया जाय, तो इसमें संदेह नहीं, कि विरुद्ध कथनोंके ढेरके ढेर लग जायँ । परन्तु जैन-समाज अभी इतने बारीक तथा सूक्ष्म विचारोंको सुनने और समझनेके लिए तैयार नहीं है, और न एक ऐसे ग्रंथके लिए इतना अधिक प्रयास और परिश्रम करनेकी कोई जरूरत है, जो पिछले लेखों द्वारा बहुत स्पष्ट शब्दोंमें विक्रम संवत् १६५७ और १६६५ के मध्यवर्ती समयका बना हुआ ही नहीं बल्कि इधर उधरके प्रकरणोंका एक बेढंगा संग्रह भी सिद्ध किया जा चुका है । इस लिए आज इस लेखमें, फलादेश-सम्बंधी सूक्ष्म विचारोंको छोड़कर, बहुत मोटेरूपसे विरुद्ध कथनोंका दिग्दर्शन कराया जाता है । जिससे और भी जैनियोंकी कुछ थोड़ी बहुत आँखें खुलें, उनका साम्प्रदायिक मोह टूटे और उनकी अंधी श्रद्धा दूर होकर उनमें सदसद्विवेकवती बुद्धिका विकाश हो सके:

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