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छह सर्षपोंका एक जो होता है । संहिताका यह सब कथन जैनदृष्टिसे बिलकुल गिरा हुआ ही नहीं बल्कि नितान्त, असत्य मालूम होता है। इस कथनके अनुसार एक जौ, असंख्यात अथवा अनंत परमाणुओंकी जगह, सिर्फ १४४ परमाणुओंका पुंज ठहरता है, जब कि मनुस्मृतिका कर्ता उसे ४३२ त्रसरेणुओंके बराबर बतलाता है । एक त्रसरेणुमें बहुतसे परमाणुओंका समूह होता है । परमाणुको जैनशास्त्रोंमें इंदियगोचर नहीं 'माना; ऐसी हालत होते हुए लौकिक व्यवहारमें परमाणुके पैमानेका प्रयोग भी समुचित प्रतीत नहीं होता । इन सब बातोंसे मालूम होता है कि ग्रंथकर्ताने संज्ञाओंका यह कथन मनस्मृति या उसके सहश किसी दूसरे ग्रंथसे लिया तो जरूर है; परन्तु वह उसके आशयको ठीक तौरसे समझ नहीं सका और उसने परमाणुका लक्षण साथमें लगाकर जो इस कथनको जैनकी रंगत देनी चाही है उससे यह कथन उलटा जैनके विरुद्ध हो गया है और इससे ग्रंथकर्ताकी साफ मूर्खता टपकती है। सत्य है 'मूलॊका प्रसाद भी भयंकर होता है।
(७) इस संहितामें अनेक कथन ऐसे पाये जाते हैं जिन्हें ग्रंथकर्ताने विना किसी नूतन आवश्यकताके एकसे अधिक वार वर्णन किया है
और जिनके इस. वर्णनसे न सिर्फ ग्रंथकर्ताकी मूढता अथवा हिमाकत ही जाहिर होती है बल्कि साथ ही यह बात और स्पष्ट हो जाती है कि 'यह पूरा ग्रंथ किसी एक व्यक्तिकी स्वतंत्र रचना न होकर प्रायः भिन्न भिन्न व्यक्तियों के प्रकरणोंका एक बेढंगा संग्रह मात्र है। ऐसे कथनोंके कुछ नमूने इस प्रकार हैं:
(क) पहले खंडके 'प्रायश्चित्त ' नामक १० वें अध्यायमें, एक स्थान पर, ये तीन पद्य दिये हैं:
पण दस बारस णियमा पण्णारस होइ तहय दिवसेहि। खत्तिय वभाविस्सा सुद्दाय कमेण सुज्झति ॥ ३७॥