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वाक्य कहे जाते । इसलिए ये चारों पद्य इस ग्रंथमें बिलकुल असम्बद्ध. तथा अनमेल मालूम होते हैं और साथ ही इस बातको सूचित करते हैं कि ग्रंथकर्ताने इन चारों पयोंहीको नहीं बल्कि संभवतः उक्त चारों अध्यायोंको किसी ऐसे दूसरे ग्रंथ या ग्रंथोंसे उठाकर यहाँ रक्खा है जहाँ उक्त ग्रंय या ग्रंथोंके कीआने उन्हें अपने अपने प्रकरणानुसार दिया होगा । मालूम होता है कि संहिताके कर्ताके ध्यानमें ही ये सम्बोधन पद नहीं आये । अथवा यों कहना चाहिए कि उसमें इनके सम्बंधविशेषको समझनेकी योग्यता ही नहीं थी। इस लिए उसने उन्हें ज्योंका त्यों नकल कर दिया है।
(स) इस ग्रंथके तीसरे संडमें 'नवग्रहस्तुति ' नामका सबसे पहला अध्याय है । अन्तिम वक्तव्यमें भी इस अध्यायका नाम 'ग्रहस्तुति' ही लिखा है; परन्तु इस सारे अध्यायका पाठ कर जाने पर, जिसमें कुल १५ पद्य हैं, ग्रहोंकी स्तुतिका इसमें कहीं भी कुछ पता नहीं है। इसका पहला पद्य मंगलाचरण और प्रतिज्ञाका है, जिसमें 'ग्रहशान्ति प्रवक्ष्यामि' इस वाक्यके द्वारा ग्रहोंकी स्तुति नहीं बल्कि शान्तिके कथनकी प्रतिज्ञा की गई है +1दूसरे पद्यमें ग्रहों (खेचरों) को 'जैनेन्द्र' बतलाया है और उनके पूजनकी प्रेरणा की है । इसके बाद चार पद्योंमें तीर्थकरों और ग्रहोंके नामोका मिश्रण है । ये चारों पद्य संस्कृत साहित्यकी दृष्टिसे बड़े. ही विलक्षण मालूम होते हैं । इनसे किसी यथेष्ट आशयका निकालना बढ़े बुद्धिमानका काम है * । सातवें पद्यमें खेचरों सहित जिनेंद्रोंके पूजनकी प्रेरणा है। आठवें पद्यमें ग्रहके नाम दिये हैं और उन्हें 'जिन ,
+'शान्ति' नामका एक दूसरा अध्याय नं० १० इस तीसरे खंडमें अलग दिया है, जिसमें 'ग्रहशान्ति' का बहुत कुछ विस्तारके साथ वर्णन है । यह अन्याय ग्रहशांतिका नहीं है।
* उक्त चारों पद्य इस प्रकार हैं, जिनका अर्थ पाठकोंको किसी संस्कृतः जाननेवालेसे मालूम करना चाहिए:--