Book Title: Granth Pariksha Part 02
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 75
________________ ( ६७ ) मधुछत्रं विशेत्स्व दिवा वा यस्य वेश्मनि । अर्थनाशो भवेत्तस्य मरणं वा विनिर्दिशेत् ॥१३३॥ अध्याय ३० ३ २ - मूत्रं वा कुरुते स्त्रमे पुरीषं वा सलोहितम् । प्रतिबुध्येत्तथा यच लभते सोऽर्थनाशनम् ॥ ५२ ॥ - अ० २६ पुरीषं लोहितं स्वप्ने मूत्रं वा कुरुते तथा । तदा जागर्ति यो मत्यों द्रव्यं तस्य विनश्यति ॥१२१॥ अ० ३० १ इनसे साफ जाहिर है कि ग्रंथकर्ताने इन दोनों अध्यायोंका स्वमंविपयक कथन भिन्न भिन्न स्थानोंसे उठाकर रक्खा है और उसमें इतनी , योग्यता नहीं थी कि वह उस कथनको छाँटकर अलग कर देता जो एक बार पहले आचुका है । इसी तरह पर इस ग्रंथ में ' उत्पात' नामका एक अध्याय नं० १४ है, जिसमें केवल उत्पातका ही वर्णन है और दूसरा 'ऋषिपुत्रिका' नामका चौथा अध्याय, तीसरे खंडमें है जिसमें उत्पातका प्रधान प्रकरण है । इन दोनों अध्यायोंका बहुतसा उत्पातविषयक कथन भी एक दूसरे से मिलता जुलता है। इनके भी दो दो नमूने इस प्रकार हैं:नर्तनं जलनं हास्यं उल्कालापौ निमीलनं । देवा यत्र प्रकुर्वन्ति तंत्र विद्यान्महद्भयम् ॥ १४- १०२ ॥ * देवा णचंति जहिं पसिनंति तहय रोवंती । जइ धूमंति चलति य हसंति वा विविहरू हिं । लोयस्स दितिं मारिं दुभिक्खं तहय रोय पीडं वा ॥ ४-७८२ ॥ आरण्या ग्राममायान्ति वनं गच्छेति नागराः । उदति चाथ जल्पति तदारण्याय कल्पते ॥ १४-६ ॥ + आरण्णयमिग पक्खी गामे णयरम्मि दीसदे जत्थ । होहदि णायरविणासो परचक्कादो न संदेहो ॥४- ५६ ॥ * संस्कृतछायाः - देवा नृत्यंति यदि प्रस्वेद्यंति तथा च रुदन्ति । यदि धूमंति चलति च हसति वा विविधरूपैः ॥ लोकस्य ददति मारी दुर्भिक्षं तथा रोगपीडां वा ॥ ७८ ॥ + संस्कृतछाया:-आरण्यकमृगपक्षी प्रामे नगरे च दृश्यते यत्र । भविष्यति नगरविनाशः परचक्रात् न संदेहः ॥ ५६ ॥

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