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(३४) देनेवाले वर्धमानस्वामीको नमस्कार करके (क्या कहता हूँ, ऐसी प्रतिज्ञा, आगे कुछ नहीं) हे राजन तुम उन सबका फल चित्त लगाकर सुनो। परन्तु इससे यह मालूम न हुआ कि राजा कौन, जिसको सम्बोधन करके कहा गया और वे सब कौन, जिनका फल सुनाया जाता है। ग्रंथम इससे पहले कोई भी ऐसा प्रकरण या प्रसंग नहीं है जिसका इस श्लोकके 'राजन' और 'तत्' शब्दोंसे सम्बन्ध हो सके। इस लिए यह श्लोक यहाँपर बिलकुल भद्दा और निरा असम्बद्ध मालूम होता है। इसके
आगे ग्रंथमें, श्लोक नं० १८ तक उन १६ स्वमोंके फलका वर्णन है 'जिनका सम्बन्ध राजा चंद्रगुप्तसे कहा जाता है और जिनका उल्लेख रत्ननन्दिने अपने 'भद्रवाहुचरित्र' में किया है । स्वमोंका यह सब फल-वर्णन प्रायः उन्हीं शब्दोंमें दिया है जिनमें कि वह उक्त भद्रवाहुचरित्रके दूसरे परिच्छेदमें श्लोक नं० ३२ से ४८ तक पाया जाता है। सिर्फ किसी किसी श्लोकमें दो एक शब्दोंका अनावश्यक परिवर्तन किया गया है। जैसा कि नीचे लिखे दो नमूनोंसे प्रगट है:
१-खेरस्तमनालोकात्कालेऽत्र पंचमेऽशुभे। एकादशांगपूर्वादिश्रुतं हीनत्वमेष्यति ॥ ३२ ॥
-भद्रवाहुचरित्र । - भद्रबाहुसंहिताके उक्त 'फल' नामके अध्यायमें यही श्लोक नं०३ पर दिया है। सिर्फ 'रवेरस्तमनालोका के स्थानमें 'स्वप्ने सूर्यास्तावलोकात' बदला हुआ है।
२-तुंगमातंगमासीनशाखामृगनिरीक्षणात् । - राज्यं हीना विधास्यन्ति कुकुला न च वाहुजाः ॥४३॥
भद्रबाहुसंहिताके उक्त अध्यायमें यह भद्रबाहुचरित्रका श्लोक नं० १३ पर दिया है। सिर्फ 'बाहुजा के स्थानमें उसका पर्यायवाचक पद
क्षत्रियाः' बनाया गया है । भद्रबाहुचरित्रमें, इस फलवर्णनसे पहले, राजा चंद्रगुप्त और उसके स्वप्मादिकोंका सब संबंध देकर उसके बाद नीचे