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दूसरा लेख। इस ग्रंथके साहित्यकी जाँचसे मालूम होता है कि जिस किसी व्यक्तिने इस ग्रंथकी रचना की है वह निःसन्देह अपने घरकी अकल बहुत कम रखता था और उसे ग्रंथका सम्पादन करना नहीं आता था। साथ ही, जाली ग्रंथ बनानेके कारण उसका आशय भी शुद्ध नहीं था । यही वजह है कि उससे, ग्रंथकी स्वतंत्र रचनाका होना तो दूर रहा, इधर उघरसे उठाकर रक्खे हुए प्रकरणोंका संकलन भी ठीक तौरसे नहीं होसका और इसलिए उसका यह ग्रंथ इधरउधरके प्रकरणोंका एक बेढगा संग्रह बन गया है । आगे इन्हीं सब बातोंका दिग्दर्शन कराया जाता है। इससे पाठकों पर ग्रंथका जालीपन
और भी अधिकताके साथ खुल जायगा और साथ ही उन्हें इस बातका पूरा अनुभव हो जायगा कि ग्रंथकर्ता महाशय कितनी योग्यता रखते थे:
(१) इस ग्रंथके तीसरे खंडमें तीन अध्याय-चौथा, पाँचवाँ, और सातवा-ऐसे हैं जिनका मूल प्राकृत भाषामें है और अर्थ संस्कृतमें दिया है। चूंकि इस संहिता पर किसी दूसरे विद्वानकी कोई टीका या टिप्पणी
नहीं है इस लिए उक्त अर्थ उसी दृष्टिसे देखा जाता है; जिस दृष्टिसे कि : शेष सम्पूर्ण ग्रन्थ । अर्थात् वह ग्रंथकर्ता भद्रबाहुका ही बनाया हुआ
समझा जाता है; परन्तु ग्रंथकर्ताको ऐसा करनेकी जरूरत क्यों पैदा हुई, यह कुछ समझमें नहीं आता। इसके उत्तरमें यदि यह कहा जाय कि प्राकृत होनेकी वजहसे ऐसा किया गया तो यह कोई समुचित उत्तर नहीं