________________
(४९) है । ग्रंथकर्ताने उसे बिना सोचे समझे यहाँ ज्योंका त्यों रख दिया है। भद्रवाहुसंहितामें इस प्रकारका कोई कथन नहीं जिससे इसका सम्बंध लगाया जाय।
५-ओनाः प्रदक्षिणं शस्ता मृगः सनकुलाण्डजाः।
चाषः सनकुलो वामो भृगुराहापराहतः ॥ १-३७ ॥ यह बृहसंहिता (अ० ८६) का ४३ वाँ पद्य है । इसमें 'भृगु' जीका नाम उनके वचन सहित दिया है। भद्रबाहुसंहितामें इसे ज्योंका त्यों रक्खा है । वदला नहीं है। संभव है कि यह पद्य परिवर्तनसे छूट गया हो । अब आगे परिवर्तित पद्योंके दो नमूने दिखलाये जाते हैं:
६-श्रेष्टो हयः सितः प्राच्यां शवमांसे च दक्षिणे।
कन्यका दधिनी पश्चादुदग्साधुजिनादयः॥१-४०॥ बृहत्संहितामें इस पद्यका पहला चरण ' श्रेष्ठे हयसिते प्राच्यां' और चौथा चरण 'दुदंग्गो विप्रसाधवः ' दिया है। बाकी दोनों चरण ज्योंके त्यों हैं । इससे भद्रबाहुसंहितामें इस पद्यके इन्हीं दो चरणोंमें तबदीली पाई जाती है। पहले चरणकी तबदीली साधारण है और उससे कोई अर्थभेद नहीं हुआ। रही चौथे चरणकी तबदीली, उसमें 'गोविप्र' (गोब्राह्मण) की जगह 'जिनादि । बनाया गया है और उससे यह सूचित किया है कि यात्राके समय उत्तरदिशामें यदि साधु और जिनादिक होवें तो श्रेष्ठ फल होता है । परन्तु इस तबदीलीसे यह मालूम न हुआ कि इसे करके ग्रंथकर्ताने कौनसी बुद्धिमत्ताका कार्य किया है। क्या 'साधु ' शब्दमें 'जिन' का और 'जिनादि । शब्दोंमें 'साधु' का समावेश नहीं होता था ? यदि होता था तो फिर साधु और जिनादि ये दो शब्द अलग अलग क्यों रक्खे गये। साथ ही, जिस गौ और ब्राह्मणके नामको उड़ाया गया है उसको यदि कोई आदि ' शब्दसे ग्रहण कर ले तो उसका ग्रंथकाने इस श्लोकमें क्या प्रतीकार रक्खा है ?
गया गया है उसले गये ? साथ ही, साधु और जिनादि ये