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(५९) . पूर्वमायुः परीक्षेत पश्चालक्षणमेव च ।
आयुहीन नराणां चेत् लक्षणैः किं प्रयोजनम् ॥ इन श्लोकोंमें पहला श्लोक उक्त तीसरे पद्यसे बहुत कुछ मिलता जुलता है । मालूम होता है कि संहिताका उक्त पय इसी श्लोक परसे या इसके सदृश किसी दूसरे श्लोक परसे परिवर्तित किया गया है और इस परिवर्तनके कारण ही वह कुछ दूषित और असम्बंधित बन गया है।
अन्यथा, इस श्लोकमें उक्त प्रकारका कोई दोष नहीं है। इसका 'तेषां' 'पद भी इससे पहले श्लोकके उत्तरार्धमें आये हुए ‘मनुष्याणां पदसे. सम्बन्ध रखता है । रहा दूसरा श्लोक, उसे देखनेसे मालूम होता है कि वह और संहिताका ऊपर उद्धृत किया हुआ पद्य नं० २ दोनों एक हैं। सिर्फ तीसरे चरणमें कुछ नाममात्रका परिवर्तन है जिससे कोई अर्थभेद नहीं होता । बहुत संभव है कि संहिताका उक्त पय भी इस दूसरे श्लोकपरसे परिवर्तित किया गया हो। परन्तु इसे छोड़कर 'यहाँ एक बात और नोट की जाती है और वह यह है कि इस अध्यायमें एक स्थान पर, 'नारदस्य वचो यथा ' यह पद देकर नारदके वचनानुसार भी कथन करनेको सूचित किया है । यथाः
ललाटे यस्य जायेत रेखात्रयसमागमः ।
षष्ठिवर्षायुरुद्दिष्टं नारदस्य वचो यथा ॥१३०॥ इससे मालूम होता है कि इस अध्यायका कुछ कथन किसी ऐसे ग्रंथसे भी उठाकर रक्खा गया है जो हिन्दुओंके नारद मुनि या नारदा, 'चार्यसे सम्बंध रखता है । 'नारदस्य वचो यथा ' और 'भद्रबाहुवचो
यथा' ये दोनों पद एक ही वजनके हैं । आश्चर्य नहीं कि इस अध्या'यमें जहाँ भद्रबाहुवचो यथा ' इस पदका प्रयोग पाया जाता है वह * नारदस्य वचो यथा ' इस पदको बदल कर ही बनाया गया हो और
+ वह उत्तरार्ध इस प्रकार है:- लक्षणं तु मनु याणां एकैकेन वदाम्यहम् ।
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