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ऊपर के इस संपूर्ण परिचयसे-ज्योंके त्यों उठाकर रक्खे हुए, स्थानान्तर किये हुए, छूटे हुए, छोड़े हुए और परिवर्तित किये हुए पयोंके - नमूनों से साफ जाहिर है और इसमें कोई संदेह बाकी नहीं रहता कि यह सब कथन उक्त बृहत्संहिता से उठाकर ही नहीं बल्कि चुराकर रक्खा गया है । साथ ही इससे ग्रंथकर्ताकी सारी योग्यता और धार्मिकताका अच्छा पता मालूम हो जाता है ।
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( ३ ) पहले लेखमें, भद्रबाहु और राजा श्रेणिककी ( ग्रंथकर्ता द्वारा गढ़ी हुई ) असम्बद्ध मुलाकातको दिखलाते हुए, हिन्दुओंके 'बृहपाराशरी होरा ' ग्रंथका उल्लेख किया जा चुका है । इस ग्रंथसे लगभग दोसौ श्लोक उठाकर भद्रबाहुसंहिता के अध्याय नं० और ४२ में रक्खे गये हैं । संहिता में इन सब श्लोकोंकी नकल प्रायः ज्योंकी त्यों पाई जाती है। सिर्फ दस पाँच श्लोक ही इनमें ऐसे नजर आते हैं जिनमें कुछ थोड़ासा परिवर्तन किया गया है । नमूने इस प्रकार हैं:१ - भौमजीवारुणाः पापाः एक एव कविः शुभः । शनैश्वरेण जीवस्य योगोमेषभवो यथा ॥४१-१६॥ २ - स्वात्रिंशांशेऽथवा मित्रे त्रिंशांशे वा स्थितो यदि ।
तस्य भुक्तिः शुभा प्रोक्ता भद्रवाहुमहर्षिभिः॥४२ - १८ ३- एवं देहादिभावानां पढवर्गगतिभिः फलम् ।
सम्यग्विचार्य मतिमान्प्रवदेत् मागधाधिपः ॥ ४२ - द्वि०१७ इनमें से पहला श्लोक ज्योंका त्यों है और वह उक्त पाराशरी होराके 'पूर्वखंडसम्बन्धी १३ वें अध्यायमें नं० १९ पर दर्ज है । दूसरे श्लोकेमें * कालविद्भिर्मनीपिभिः ' के स्थान में ' भद्रबाहुमहर्षिभिः ' और तीसरे श्लोक में ' कालवित्तमः ' की जगह मागधाधिपः ' बनाया गया है । दूसरे श्लोकमें भद्रबाहुके नामका जो परिवर्तन
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१ यह श्लोक वृहत्पाराशरहोराके ३७ वें अध्यायमें नं० ३ पर दर्ज है। २ यह श्लोक वृ० पाराशरी होराके ४६ वें अध्यायका ११ वाँ पद्य है ।