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उसी प्रकार होना चाहिए था जिस प्रकार कि वह द्वितीय चरणमें पाया जाता है। परन्तु भद्रवाहुसंहितामें ऐसा नहीं है। उसके चौथे चरणका गणाविन्यास दूसरे चरणसे बिलकुल भिन्न हो गया है।
(6) भद्रबाहुसंहितामें 'वास्तु' नामका ३५ वाँ अध्याय है, जिसमें लगभग ६० श्लोकवसुनन्दिके 'प्रतिष्ठासारसंग्रह ' ग्रंथसे उठाकर रक्खे गये हैं और जिनका पिछले लेखमें उल्लेख किया जा चुका है। इन श्लोकोंके बाद एक श्लोकमें वास्तुशास्त्रके अनुसार कथनकी प्रतिज्ञा देकर, १३ पद्य इस बृहत्संहिताके 'वास्तुविद्या ' नामक ५३ वें अध्यायसे भी उठाकर रक्खे हैं। जिनमेंसे शुरूके चार पद्योंको आर्या छंदसे अनुष्टुपमें बदल कर रक्खा है और बाकीको प्रायः ज्योंका त्यों उसी छंदमें रहने दिया है। इन पद्यों से भी दो नमूने इस प्रकार हैं:१-षष्ठिश्चतुर्विहांना वेश्मानि भवन्ति पंच सचिवस्य । स्वाष्टांशयुता दैध्ये तदर्धतो राजमहिषीणाम् ॥ ६ ॥(-बृहत्संहिता।) सचिवस्य पंच वेश्मानि चतुहींना तु षष्ठिकाः । स्वाष्टांशयुतदाणि महिषीणां तदर्धतः ॥ ६८ ॥ (-भद्रवा० सं०।) २-ऐशान्यां देवगृहं महानसं चापि कार्यमामय्याम् । नैत्यां भाण्डोपस्करोऽर्थ धान्यानि मारुत्याम् ॥ ७ ॥ इन पोंमें दूसरे नम्बरका पद्य ज्योंका त्यों नकल किया गया है और बृहत्संहितामें नं० ११८ पर दर्ज है। पहले पद्यमें सिर्फ छंदका परिवर्तन है । शब्द प्रायः वहीके वही पाये जाते हैं । इस परिवर्तनसे पहले चरणमें 'एक अक्षर बढ़ गया है-८ की जगह ९ अक्षर हो गये हैं। यदि ग्रंथकर्ताजी किसी मामूली छंदोवित्से भी सलाह ले लेते तो वह कमसे कम 'सचिवस्य' के स्थानमें उन्हें 'मंत्रिणः ' कर देना जरूर बतला देता, जिससे छंदका उक्त दोष सहजहाँमें दूर हो जाता । अस्तु ।