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.( ५२) ग्रंथकर्ताने यह परिवर्तन करके कोई बुद्धिमान का काम नहीं किया।
२-निगदितसमये न दृश्यते चेदधिकतरं द्विगुणे प्रपच्यते तत् । यदिन कनकरत्नगोप्रदानैरुषशमितं विधिद्विजैश्च शान्त्या ॥१७॥-बृहत्संहिता। निगदितसमये न दृश्यते चेत् अधिक (तर) द्विगुणे विपच्यते तत् । यदि न जिनवचो गुल्पवयं शमितं तन्महकैच लोकशान्त्यै ॥१४॥-भद्र० सं० ।
इस पद्यको देसनेसे मालूम होता है कि भद्रबाहुसंहितामें इसके उत्तरार्धका खास तौरसे परिवर्तन किया गया है । परिवर्तन किस दृष्टिसे किया गया:
और उसमें किस बातकी विशेषता रक्सी गई है, इस बातको जाननेके लिए सबसे पहले वृहत्संहिताके इस पद्यका आशय मालूम होना जरूरी है : और वह इस प्रकार है:
ग्रहों तथा उत्पातों आदि फल पकनेका जो समय ऊपर वर्णन किया गया है उस समय पर यदि फल दिखाई न दे तो उससे दूने समयमें वह अधिकताके साथ प्राप्त होता है । परन्तु शर्त यह है कि, वह फल सुवर्ण, रत्न और गोदानादिक शांतिसे विधिपूर्वक ब्राह्मणोंके द्वारा उपशमित न हुआ हो । अर्थात् यदि वह फल इस प्रकारसे उपशांत. न हुआ हो तब ही दूने समयमें उसका अधिक पाक होगा, अन्यथा नहीं।'' स्मरण रहे, भद्रबाहुसंहितामें इस पयका जो कुछ परिवर्तन किया गया है वह सिर्फ इस पदकी उक्त शर्तका ही परिवर्तन है । इस शतके स्थानमें जो शर्त रक्खी गई है वह इस प्रकार है:
'परन्तु शर्त यह है कि वह फल लोकशांति के लिए महत्पुरुषों द्वारा की हुई जिनवचन और गुरुकी सेवासे शांत न हुआ हो।' ___ इस शर्तके द्वारा इस पद्यको जैनका लिबास पहनाकर उसे जैनी बनाया गया है। साथ ही, ग्रंथकाने अपने इस कृत्यसे यह सूचित किया है कि शांति सुवर्ण, रत्न, और गौआदिके दानसे नहीं होती बल्कि जिनवचन : और गुरुकी सेवासे होती है । परन्तु तीसरे खंडके 'ऋषिपुत्रिका :