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(५१) विशेषरूपसे निरूपण किया गया है * ' इस संपूर्ण कथनको जैनका ही नहीं बल्कि नियों के फेवलीमा बना डाला है ! पाठक सोचें और विचार करें, इसमें कितना अधिक धोखा दिया गया है।
(प) भद्रबाहुसंहिता, शकुनाध्यायके वाद, 'पाक' नामका ३२ याँ अध्याय है, जिसमें १७ पत्र हैं। यह पूरा अध्याय भी बृहत्संहितासे नकल किया गया है। बृहत्संहितामें इसका नं० ९७ है और पद्योंकी संग्या यही १७ दी है। इन पामसे ८ पयोंकी नकल भद्रबाहुसंहितामें ज्योंकी त्यों पाई जाती है । बाफीके पय कुछ परिवर्तनके साथ उठाकर रक्से गये हैं। परिवर्तन आम तौर पर शब्दोको प्रायः आगे पीछे कर देने या किसी किसी शब्दके स्थानमें उसका पर्यायवाचक शब्द रखदेने मानसे उत्पन्न किया गया है। उदाहरणके तौर पर आदि अन्तके दो पद्य उन पयोंके साथ नीचे प्रकाशित किये जाते हैं जिनसे वे कुछ परिवर्तन फरफ बनाये गये है:
पक्षालानीः सोमस्य मासिकोमारकस्य कोकः । भाददर्शनान पाको युधस्य जीपस्य वर्षेण ॥१॥(-वृहत्संहिता ।) पाफः पक्षाशानोः सोमस्य च मासिकः कुन्जस्य कोकः ।
आदर्शनाश पाको शुभस्य मुगुरोध वर्षेण ॥१॥ (-भद्रवाहुसंहिता । ) ऊपरके इस पयका भद्रबाहुसंहितामें जो परिवर्तन किया गया है उससे अर्थमें कोई भेद नहीं हुआ । हाँ इतना जरूर हुआ है कि आर्या छंदके दूसरे चरणमें १८ मात्राओं के स्थानमें २१ मात्रायें होगई हैं और एकी जगह दो 'पाक' शब्दोंका प्रयोग व्यर्थ हुआ है। यदि शुरूके 'पाकः । पदको किसी तरह निकाल भी दिया जाय तो भी छंद ठीक नहीं ,ठता । उस वक्त दूसरे चरणमें १७ माघायें रह जाती हैं। इसलिए
*श्रेणिकेन यथा पृष्ठ तथा गौतमगापितम् । शुभाशुगं च शकुन विशेषेण निरूपितम् ॥ २ ॥