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नामक चौथे, अध्यायमें प्रतिमादिकके उत्पातकी जिसके पाकका इस पाकाध्यायमें भी वर्णन है, शांतिका विधान करते हुए लिखा है कि:* जं किचिवि उप्पादं अण्णं विग्धं च तत्थ णासेइ । दक्खिणदेज्ज सुवण्णं गावी भूमी उ विप्पदेवाणं ॥ ११२ ॥ अर्थात- जो कोई भी उत्पात या दूसरा कोई विघ्न हो उसमें ब्राह्मण देवताओंको दक्षिणा देना चाहिए - सोना, गौ और भूमि देना चाहिए ऐसा करनेसे उत्पातादिककी शांति होती है ।
इस गाथाको पढ़कर शायद कुछ पाठक यह कह उठें कि 'यह कथन जैनधर्म के विरुद्ध है । ' परन्तु विरुद्ध हो या अविरुद्ध, यहाँ उसके दिखलानेका अभिप्राय या उसपर विचार करनेका अवसर नहीं है - विरुद्ध कथनोंका अच्छा दिदर्शन पाठकों को अगले लेखमें कराया जायगा -यहाँ सिर्फ यह दिखलानेकी गरज है कि ग्रंथकर्तीने एक जगह उक्त परिवर्तनके द्वारा यह सूचित किया है कि सोना तथा गौ आदिकके दानसे ब्राह्मणोंके द्वारा शांति + नहीं होती और दूसरी जगह खुले शब्दों में उसका विधान किया है । ऐसी हालत में समझमें नहीं आता कि ग्रंथकर्ता के इस कृत्यको उन्मत्तचेष्टाके सिवाय और क्या कहा जाय ! यहाँ पर यह भी प्रगट कर देना जरूरी है कि ग्रंथकर्ताने, अपने इस कृत्यसे छंदमें भी कुछ गढ़बड़ी पैदा की है। बृहत्संहिताका उक्त पद्य ' पुष्पिताग्रा ' नामक छन्दमें है । उसके लक्षणानुसार चतुर्थ पादमें भी गणोंका विन्यास
* इसकी संस्कृतछाया इस प्रकार है:
यत्किंचिदपि उत्पातं अन्यद्विघ्नं च तत्र नाशयति । दक्षिणा दद्यात् सुवर्ण गौः भूमिश्च विप्रदेवेभ्यः ॥
+ ब्राह्मणों के उत्कर्ष की बातको दो एक जगह और भी बदला है जिसका ऊपर उद्धृत किये हुए ( ख ) और (ग) भागके पद्योंमें उल्लेख आचुका है।
$ इस छंदके विपम (१ - ३ ) चरणों में क्रमशः नगण नगण रंगण यगण और सम ( २-४ ) चरणों में नगण जगण जगण रगण और एक गुरु होते हैं।