________________
(४३) २-कांस्यपात्रे न भोक्तव्यमन्योन्यवर्णजैः कदा ।
शुद्रस्त्वपक्कं पक्वं वा न भुंजेदन्यपंक्तियु ॥ ४ ॥ टिप्पणी-पंक्ति' इति वहुवचनाद्वर्णत्रयपंकावेव पक्कमपक्वं वा न भुजेत् इत्यर्थः।
इससे पाठक समझ सकते हैं कि श्लोक कितने सुगम हैं, और उनकी टीका-टिप्पणीमें क्या विशेषता की गई है। साथ ही मुकाबलेके लिए इससे 'पहले लेखमें और इस लेखके अगले भागमें उद्धृत किये हुए बहुतसे कठिनसे कठिन श्लोकोंको भी देख सकते हैं जिन पर कोई टीका-टिप्पण नहीं है । और फिर उससे नतीजा निकाल सकते हैं कि कहाँ तक ऐसे श्लोकोंकी ऐसी टीका-टिप्पणी करना श्रुतकेवली जैसे विद्वानोंका काम होसकताह । सच तो यह है कि यह सब मूल और टीका-टिप्पणियाँ भिन्नभिन्न व्यक्तियोंका कार्य मालूम होता है। मूलकर्ताओंसे टीकाकार भिन्न जान पड़ते हैं। सबका ढंग और कथनशैली प्रायः अलग है। चौथे और सातवें अध्यायोंकी टीकामें बहुतसे स्थानों पर, 'इत्यपि पाठः '-ऐसा भी पाठ है-यह लिखकर, मूलका दूसरा पाठ भी दिया हुआ है, जो मूलका उल्लेख योग्य पाठ-भेद होजानेके बाद टीकाके बननेको सूचित करता है । यथाः
१-'वाहिमरणं (व्याधिमरणं)'-'रायमरणं ( राजमरणं ) इत्यपि पाठ ॥४-३०॥ २-मेहंतर (मेघान्तर-)-हेमंतर (हेमान्तर-) इत्यपि पाठः ॥४-३१॥
३- 'अण्णेणवि (अन्येनापि)- 'अण्णोण्णवि (अन्योन्यमपि-परस्परमपि ) इत्यपि पाठः ॥७-२१॥
इससे मूलकर्ता और टीकाकारकी साफ तौरसे विभिन्नता पाई जाती है। साथ ही, इन सब बातोंसे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि ग्रंथकर्ता इन दोनोंसे भिन्न कोई तीसरा ही व्याक्ति है। उसे संभवतः ये सब 'प्रकरण इसी रूपमें (टीकाटिप्पणीसहित या रहित ) कहींसे प्राप्त हुए हैं
और उसने उन्हें वहाँसे उठाकर बिना सोचे समझे यहाँ जोड़ दिया है।