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क्षिप्रध्रुवाहिचरमूलमृदुनिपूर्वा, . रौद्रेऽविद्गुरुसितेन्दुदिने व्रत सत् । द्वित्रीपुरुद्ररविदिक् प्रमिते तिथौ च,
कृष्णादिमत्रिलवकेपि न चापराहे ।। १७२ ॥ यह पय मुहूर्तचिन्तामणिके पाँचवं संस्कार-प्रकरणका ४० वाँ पय है। इससे साफ़ जाहिर है कि यह सहिता ग्रंथ मुहूर्तचिन्तामणिसे बादका अर्थात् वि०सं०१६५७से पीछेका बना हुआ है।
यहाँतकके इस संपूर्ण कथनसे यह तो सिद्ध हो गया कि यह खंडत्रयात्मक ग्रंथ (भद्रबाहुसंहिता ) भद्रबाहु श्रुतकवलीका बनाया हुआ नहीं है, न उनके किसी शिष्यप्रशिष्यका बनाया हुआ है और न वि. सं. १६५७ से पहलेहीका बना हुआ है, बल्कि उक्त संवत्से पीछेका बना हुआ है । परन्तु कितने पीछेका बना हुआ है और किसने बनाया है, इतना सवाल अभी और बाकी रह गया है। ___ भद्रबाहुसंहिताकी वह प्रति जो झालरापाटनके भंडारसे निकली है
और जिसका ग्रंथ-प्राप्तिके इतिहासमें ऊपर उल्लेख किया गया है वि० सं० १६६५ की लिखी हुई है। इससे स्पष्ट है कि, यह ग्रंथ वि० सं० १६६५ से पहले बन चुका था और वि० सं० १६५७ से पीछेका बनना उसका ऊपर सिद्ध किया जा चुका है। इस लिए यह ग्रन्थ इन दोनों सम्बतों ( १६५७-१६६५) के मध्यवर्ती किसी समयमें-सात आठ वर्षके भीतर बना है, इस कहनेमें कोई संकोच नहीं होता। यही इस ग्रंथके अवतारका समय है । अब रही यह बात कि, ग्रंथ किसने बनाया, इसके लिए झालरापाटनकी उक्त प्रतिके अन्तमें दी हुई लेखककी इस प्रशस्तिको गोरसे पढ़नकी जरूरत है:
" संवत्सर १६६५ का मृगसिर सुदि १० लिपीकृतं ज्ञानभूपणेन गोपाचलपुस्तकभंडार धर्मभूषणजीकी सुं लिपी या पुस्तक दे जीन जिनधर्मका शपथ