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(३७) मुन्थहा (मुन्तिही), इन्थिहा ( इन्तिहा )ये शब्द जो पाये जाते हैं चे संस्कृत भाषाके शब्द नहीं हैं। अरबी-फारसी भाषाके परिवर्तित रूप हैं । ताजिकग्रंथोंकी उत्पत्ति यवन-ज्योतिष परसे हुई है, जिसको बहुत अधिक समय नहीं बीता, इसलिए इन शब्दोंको यवन-ज्योतिषमें प्रयुक्त संज्ञाओंके अपभ्रंशरूप समझना चाहिए। दूसरे पोंमें 'इथिसाल' (इत्तिसाल )आदि और भी इस प्रकारके अनेक शब्दोंका प्रयोग पाया जाता है । अस्तु । इन सब बातोंसे मालूम होता है कि संहितामें यह सब प्रकरण या तो नीलकंठीसे परिवर्तित करके रक्खा गया है अथवा किसी ऐसे ग्रंथसे उठाकर रक्खा गया है जो नीलकंठी परसे बना है और इस लिए यह संहिता' ताजिक नीलकंठी' से पीछे बनी हुई है, इसमें कोई संदेह नहीं रहता । नील-कंठका समय विक्रमकी १७ वीं शताब्दीका पूर्वाध है । उनके पुत्र गोविन्द देवज्ञने, अपनी ३४ वर्षकी अवस्थामें, 'मुहूर्तचिन्तामाणि ' पर 'पीयूषधारा' नामकी एक विस्तृत टीका लिखी है और उसे शक सं० १५२५ अर्थात् वि० से० १६६० में बनाकर समाप्त किया है। इस समयसे लगभग २० वर्ष पहलेका समय ताजिक नीलकंठीके बननेका अनुमान किया जाता है और इस लिए कहना पड़ता है कि यह संहिता विक्रम सं० १६४० के बादकी बनी
१० इस ग्रन्थके दूसरे संढमें, २७ वें अध्यायका प्रारंभ करते हुए सबसे पहले यह वाक्य दिया है:
तत्रादौ च मुहूर्तानी संग्रहः क्रियते मया ॥ यद्यपि इस वाक्यमें आये हुए 'तत्रादौ' शब्दोंका ग्रंथ भरमें पहलेके किसी भी कथनसे कोई सम्बंध नहीं है और इस लिए वे कथनकी असम्बद्धताको प्रगट करते हुए इस बातको सुचित करते हैं कि यह
१इसका अर्थ होता है-वहाँ,आदिमें, उसके आदिमें, अथवा उनमें सबसे पहले।