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लिखा वाक्य दिया है, जिससे वहाँ पर 'राजन' और 'तत्' शब्दोंका संम्बंध ठीक बैठता है और उस वाक्य में भी कोई असम्बद्धता मालूम नहीं होती:
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प्रणिधाय मनो राजन् समाकर्णय तत्फलम् ॥३१॥
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यह वही वाक्य है जो जरासे गैरजरूरी परिवर्तन के साथ ऊपर उद्धृत किये हुए श्लोक नं० १ का उत्तरार्ध बनाया गया है । इन सब बातोंसे जाहिर है कि यह सब प्रकरण रत्ननन्दिके भद्रबाहुचरित्रसे उठाकर यहाँ रक्खा गया है और इसलिए यह ग्रंथ उक्त भद्रबाहुचरित्रसे पीछेका बना हुआ है । रत्ननन्दिका भद्रबाहुचरित्र विक्रमकी १६ वीं शताब्दी के अन्तका या १७ वीं शताब्दीके शुरूका बना हुआ माना जाता है । परन्तु इसमें तो किसीको भी कोई सन्देह नहीं है कि वह वि० सं० १५२७ के बाद का बना हुआ जरूर है । क्योंकि उसके चौथे अधिकार में इस संवत्का कामत ( ढूँढ़ियामत ) की उत्पत्तिकथन के साथ उल्लेख किया है | ऐसी हालत में यह ग्रंथ भी वि० सं० १५२७ से पीछेका बना हुआ है, इसमें कुछ संदेह नहीं हो सकता ।
९ हिन्दुओंके ज्योतिष ग्रंथोंमें 'ताजिक नीलकंठी ' नामका एक प्रसिद्ध ग्रंथ है । यह अनन्तदैवज्ञके पुत्र 'नीलकंठ' नामके प्रसिद्ध विद्वानका बनाया हुआ है । इसके बहुत से पद्य संहिता के दूसरे खंड में - 'विरोध' नामके ४३ वें अध्यायमें - कुछ परिवर्तन के साथ पाये जाते हैं । यहाँ पर उनमेंसे कुछ पथ, उदाहरण के तौर पर, उन पयोंके साथ प्रकाशित किये जाते हैं जिन परसे वे कुछ परिवर्तन करके बनाये गये मालूम होते हैं:
* यथा:- मृते विक्रमभूपाले सप्तविंशतिसंयुते, दशपंचशतेऽब्दानामतीते शृणुताम् ॥ १५७ ॥ लंकामतमभूदेकं लोपकं धर्मकर्मणः । देशेऽत्रगौर ख्याते विद्वत्ता जितनिर्जरे ॥ १५८ ॥