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परमशरिफोंऽन्देशो जन्मेशः रितः शुभैः । कंबूलेपि विपन्मृत्युरित्थमन्याधिकारतः ॥२-३-४ ॥
-ताजिक नीलकंठी । अब्देशः क्रमशरिफः शुभैर्जन्मेशः ऋरितः। कंधूलेपि विपन्मृत्युरित्यं वर्षेशमुन्थहे ॥ ४८॥
-०संहिता। २-अस्तगौ मुथहालमनायो मंदेक्षितौ यदा । सर्वनाशोमृतिः कटमाधिव्याधिभयं भवेत् ॥५॥
ता. नी० यदा मंदेक्षितौ मुथहा-लमनाथावधो गतौ । सर्वनाशो मृतिः कष्टमाधिव्याधिरुजां भयं ॥४७॥
-भ० सं० गुरुः केन्द्र त्रिकोणे वा पापादृष्टः शुमेक्षितः । लमचन्द्रन्थिहारिष्टं विनश्यार्थसुखं दिशेत् ॥ ४-२ ॥
ता. नी. पापादृष्टो गुरुः केन्द्र त्रिकोणे वा शुमेक्षितः । लग्नसोमेन्थिहारिष्टं विनश्यार्थसुखं दिशेत् ॥ ५६ ।।
-भ० सं० ऊपरके पद्योंसे पाठकोंको दो बातेंमालूम होंगीं। एक यह कि नीलकठीक पद्योंसे संहिताके पद्योंमें जो भेद है वह प्रायः नीलकंठीके शब्दोंको आगे पीछे कर देने या किसी शब्दके स्थानमें उसका पर्यायवाचक शब्द रख देने मात्रसे उत्पन्न किया गया है और इससे परिवर्तनका अच्छा अनुभव हो जाता है । इस परिवर्तनके द्वारा दूसरे पद्यके पहले चरणमें एक अक्षर बढ़ गया है-८ के स्थानमें ९ अक्षर हो गये हैं और चौथे चरणमें 'व्याधि के होते हुए 'राज्' शब्द व्यर्थ पड़ा है। दूसरी बात यह है कि इन पद्योंमें मूशरिफ (मुशरिफ़), कंबूल (कबूल), मुथहा