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वाक्य किसी दूसरे ग्रन्थसे उठाकर रक्खा गया है जहाँ उसे उक्त ग्रंथके कर्ताने अपने प्रकरणानुसार दिया होगा। परन्तु इसे छोड़कर इस वाक्यमें मुहूतोंका संग्रह करनेकी प्रतिज्ञा की गई है। लिखा है कि मेरे द्वारा मुहूर्तीका संग्रह किया जाता है, अर्थात् मैं इस अध्यायमें मुहूर्तोका संग्रह करता हूँ। यह वाक्य श्रुतकेवलीका बतलाया जाता है। ऐसी हालतमें पाठक सोचें और समझें कि यह कैसा अनोखा और असमंजस मालूम होता है । श्रुतकेवली और मुहूर्तांका संग्रह करें ? जो स्वयं द्वादशांगके पाठी और पूर्ण ज्ञानी हों-जिनका प्रत्येक वाक्य संग्रह किये जानेके योग्य हो-वे खुद ही इधर उधरसे मुहूर्तोंके कथनको इकट्ठा करते फिरें ! यह कभी नहीं हो सकता । वास्तवमें यह सारा ही ग्रंथ भद्रबाहु श्रुतकवलीका बनायाहुआ न होकर इधर उधरके प्रकरणोंका एक वेढंगा संग्रह है जैसा कि ऊपर दिखलाया गया है और अगले लेखोंमें,असम्बद्ध विरुद्धादि कथनोंका उल्लेख करते हुए और भी अच्छी तरहसे दिखलाया जायगा। इस लिए इस ग्रंथमें उक्त प्रतिज्ञाके अनुसार मुहूर्तोंका भी अनेक ग्रंथों परसे संग्रह किया गया है। अर्थात् दूसरे ग्रंथोंके वाक्योंको उठा उठाकर रक्खा है। उन ग्रंथों में ' मुहूर्तचिन्तामणि ' नामका भी एक प्रसिद्ध ग्रंथ है, जिसे नीलकंठके छोटे भाई रामदैवज्ञने शक संवत् १५२२ (वि० सं० १६५७ ) में निर्माण किया है + (इस ग्रंथसे भी अनेक पद्य उठाकर उक्त अध्यायमें रक्खे गये हैं, जिनमेंसे एक पद्य, उदाहरणके तौरपर, यहाँ उद्धृत किया जाता है:
+ यथाः-तदात्मज उदारधीविवुधनीलकंठानुजो, गणेशपदपंकजं हृदि निधाय रामाभिधः । गिरीशनगरे वरे भुजभुजेषुचंद्रमिते ( १५२२), शके विनिरमादिमं मुहूर्तचिन्तमणिम् ॥ १४-३॥ . .