Book Title: Granth Pariksha Part 02
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 35
________________ (२७) शकराजोऽभवत् ख्यातः तेन शाकः प्रवर्त्यति । चतुर्वर्षशतैः सप्तत्यधिकैर्विक्रमो नृपः । उज्जयिन्यां प्रभुः स्वस्य वत्सरं वर्तयिष्यति ॥४८॥ उपसर्ग विदित्वा तं मुनीनामसुराधिपः । चतुर्मुखं हनिष्यन्ति जिनशासनरक्षकः ॥ ५४॥ इनमेंसे दूसरा श्लोक (नं०४८) वास्तवमें डेढ़ श्लोक है । उसके पूर्वार्धका सम्बंध पहले श्लोक (नं. ४७) से मिलता है; परन्तु शेष. दोनों अर्थ भागोंका कोई सम्बंध ठीक नहीं बैठता । 'त्यक्त्वा ' शब्दके साथ 'चतुर्वर्षशतैः सप्तत्यधिकैः' इन पदोंका कुछ भी मेल नहीं है। इसी प्रकार 'अभवत्' के साथ 'प्रवत्स्यति' क्रियाका भी कोई मेल नहीं है। प्रवर्तते क्रियाका संबंध ठीक बैठ सकता है। तीसरे श्लोक ' (नं० ५४) में 'हनिष्यन्ति' यह क्रिया बहुवचनात्मक है और इसका कर्ता 'असुराधिपः एक वचनात्मक दिया है । इससे क्रियाका यह प्रयोग गलत है। यदि इस क्रियाको एक वचनकी क्रिया 'हनिष्यति समझ लिया जाय, तो भी काम नहीं चलता उससे छंदोमंग होता है । इस लिए यह क्रिया किसी तरह भी ठीक नहीं बैठती। इसके स्थानमें परोक्षमूतकी क्रियाको लिये हुए 'जघानति ' पदका प्रयोग बहुत ठीक हो सकता है और उससे आगे पीछेका सारा सम्बन्ध मिल जाता है । परतु यहाँ ऐसा नहीं है। अस्तु । इन्हीं सब बातोंसे यह कथन एक विलक्षण कथन होगया है। अन्यथा, ग्रंथमें, इसके आगे 'जलमंथन' नामके कल्कीका-जिसका अवतार अभीतक भी नहीं हुआ-पाँचवें कालके अन्तमें होना कहा जाता है-जो वर्णन दिया है उसमें इस प्रकारकी विलक्षणता नहीं है । उसका सारा वर्णन भविष्यत्कालकी क्रियाओंको लिये हुए है। तब यह प्रश्न सहज ही उठ सकता है कि इसी वर्णनके साथ यह विलक्षणता क्यों है ? इसका कोई कारण जरूर होना चाहिए । मेरे खयालमें कारण यह है कि यह सारा प्रकरण ही नहीं.

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