Book Title: Granth Pariksha Part 02
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 39
________________ (३१) इति मंत्रितसागो, मंत्री पश्यनरस्य परछायो । शुभदिवसे पूर्वाण्हे, जलधरपवनेन परिहीनं ॥ ४९ ॥(संहिता) दुर्गदेवका यह 'रिष्टसमुच्चय ' शास्त्र विक्रम संवत् १०८९ का बना हुआ है जैसा कि इसकी प्रशस्तिमें दिये हुए निम्न पद्यसे प्रगट है: संवत्थर इगसहसे वालोणे नवयसीइ संजुत्ते । सावणसुपे यारसि दियहम्मि मूलरिक्खम्मि ॥ २५७ ॥ दुर्गदेवका समय मालूम हो जानेसे, ग्रंथमुखसे ही, यह विषय 'बिलकुल साफ हो जाता है और इसमें कोई संदेह बाकी नहीं रहता कि यह भद्रवाहुसंहिता ग्रंथ भद्रवाहु श्रुतकेववलीका बनाया हुआ नहीं है, न उनके किसी शिष्य-प्रशिष्यका बनाया हुआ है और न वि० सं० १०८९ से पहलेहीका बना हुआ है। बल्कि उक्त संवत्से वादका-विक्रमकी ११ वीं शताब्दीसे पीछेकाबना हुआ है और किसी ऐसे व्यक्तिद्वारा बनाया गया है जो विशेष बुद्धिमान न हो कर साधारण मोटी अकलका आदमी था । यही वजह है कि उसे ग्रंथमें उक्त प्रतिज्ञावाक्यको रखते हुए यह खयाल नहीं आया कि मैं इस ग्रंथको भद्रबाहु श्रुतकेवलीके नामसे बना रहा हूँउसमें १२ सौ वर्ष पीछे होनेवाले विद्वानका नाम और उसके ग्रंथका प्रमाण न आना चाहिए । मालूम होता है कि ग्रंथकर्ताने जिस प्रकार अन्य अनेक प्रकरणोंको दूसरे ग्रंथोंसे उठाकर रक्खा है उसी प्रकार यह रिष्टकथन या कालज्ञानका प्रकरण भी उसने किसी दूसरे ग्रंथसे उठाकर रक्खा है और उसे इसके उक्त प्रतिज्ञावाक्यको बदलने या निकाल देनेका स्मरण नहीं रहा । सच है 'झूठ छिपायेसे नहीं छिपता' । फारसीकी यह कहावत यहाँ बिलकुल सत्य मालूम होती है कि 'दरोग गोरा हाफ़ज़ा न वाशद' अर्थात् असत्यवक्तामें धारणा और स्मरणशक्तिकी त्रुटि होती है। वह प्रायः पूर्वापरका यथेष्ट संबंध सोचे विना मुंहसे जो आता है निकाल देता है । उसे अपना असत्य

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