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( अकरोत् ) । इस उपद्रवके कारण मुनिजन राजासे व्याकुल हुए ( आसन् ) । उस उपसर्गको जानकर जिनशासन के रक्षक असुरेन्द्र चतुर्मुसको मार डालेंगे ( हनिष्यन्तिं ) । तब वह पापात्मा कल्की मरकर अपने पापकी वजहले समस्त दुःखोंकी खान पहले नरकमें गया ( गतः ) । उसी समय कल्कीका जयध्वजनामका पुत्र सुरेन्द्रके भयसे सुरेन्द्रके किये हुए जिनशासनके माहात्म्यको प्रत्यक्ष देखकर और काललब्धिके द्वारा सम्यक्त्वको पाकर अपनी सेना और बन्धुजनादि सहित सुरेन्द्रकी शरण गया ( जगाम ) || ४७-५७ ॥ ”
ऊपरके इस वर्णनको पढ़कर निःसन्देह पाठकोंको कौतुक होगा ! उन्हें इसमें भूतकाल और भविष्यत्कालकी क्रियाओंका बढ़ा ही विलक्षण योग देखने में आयगा । साथ ही, ग्रंथकर्ताकी योग्यताका मी अच्छा परिचय मिल जायगा । परन्तु यहाँ ग्रंथकर्ताकी योग्यताका परिचय कराना इष्ट नहीं है - इसका विशेष परिचय दूसरे लेख द्वारा कराया जायगा, यहाँपर सिर्फ यह देखने की जरूरत है कि इस वर्णनसे ग्रंथके सम्बंधमें किस बातका पता चलता है। पता इस बातका चलता है कि यह ग्रंथ भद्रबाहु श्रुतकेवलीका बनाया हुआ न होकर शक संवत् ३९५ अथवा विक्रम सं० ५३० से भी पीछेका बना हुआ है। यही वजह हैं कि इसमें उक्त समयसे पहलेकी घटनाओं ( प्रथमकल्कीका होना आदि ) का उल्लेख भूतकालकी क्रियाओं द्वारा पाया जाता है । ऊपरका सारा वर्णन भूतकालकी क्रियाओंसे भरा हुआ है उसका प्रारंभ भी भूतकालकी क्रियासें हुआ है और अन्त मी भूतकालकी क्रियासे, सिर्फ मध्यमें तीन जगह भविष्यत्कालकी क्रियाओंका प्रयोग है जो बिलकुल असम्बद्ध मालूम होता है । इस असम्बद्धताका विशेष अनुभव प्राप्त करनेके लिए मूल श्लोकोंको देखना चाहिए जो इस प्रकार हैं:
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त्यक्त्वा संवत्सरान्पंचाधिकषट्संमितान् । पंचमासयुतान्मुक्ति वर्द्धमाने गते सति ॥ ४७ ॥