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बलीके स्वरूपका विचार करते हुए,इन सब कथनोंपरसे यह ग्रंथ भद्रबाहुश्रुतकेवलीका बनाया हुआ प्रतीत नहीं होता! . __३ भद्रबाहु श्रुतकेवली राजा श्रेणिकसे लगभग १२५ वर्ष पीछे हुए हैं । इसलिए राजा श्रेणिकसे उनका कभी साक्षात्कार नहीं हो सकता; परन्तु इस ग्रंथके दूसरे खंडमें, एक स्थानपर, दरिद्रयोगका वर्णन करते हुए, उन्हें साक्षात् राजा श्रेणिकसे मिला दिया है और लिख दिया है कि यह कथन भद्रबाहु मुनिने राजा श्रेणिकके प्रश्नके उत्तरमें किया है। यथाः.- . . . .. अथातः संप्रवक्ष्यामि दारिद्रं दुःखकारण । . . . लग्नाधिपरिष्कगते रिकेशे लममागते॥ अ०४१, श्लो०६५ । • . मारकेशयुते दृष्टे जातः स्यानिर्धनो नरः। . भद्रबाहुमुनिप्रोक्तः नृपश्रेणिकप्रश्नतः ॥-६६ ॥ पाठक समझ सकते हैं कि ऐसा मोटा झूठ और ऐसा असत्य उल्लेख क्या कभी भद्रबाहुश्रुतकेवली जैसे मुनियोंका हो सकता है ? कभी नहीं। मुनि तो मुनि साधारण धर्मात्मा गृहस्थका भी यह कार्य नहीं हो सकता । इससे ग्रंथकर्ताका, असत्यवक्तृत्व और छल पाया जाता है। साथ ही, यह भी मालूम होता है कि वे कोई ऐसे ही योग्य व्यक्ति थे जिनको भद्रबाहु और राजा श्रेणिकके . समयतककी भी खबर नहीं थी। हिन्दुओंके यहाँ 'बृहत्पाराशरी होरा ? नामका एक बहुत बड़ा ज्योतिषका ग्रंथ है । इस ग्रंथके ३१ । अध्यायमें, दरिद्रयोगका वर्णन करते हुए, सबसे पहले जो श्लोक दिया है वह इस प्रकार है:, "लमेशे वै रिष्फगते रिफेशे लनमागते। .. मारकेशयुत दृष्टे जातः स्यानिर्धनो नरः ॥ १॥ . . । ऊपर उद्धृत किये हुए संहिताके दोनों पद्यों से पहले पद्यका पूर्वार्ध और दूसरे पद्यका उत्तरार्ध अलग कर देनेसे . यही श्लोक शेष