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है। संपूर्ण ग्रंथका एक कर्ता होनेकी हालत में इस प्रकारका भेद भाव नहीं बन सकता । अस्तु । अब एक बात और प्रगट की जाती है जो इस दूसरे खंडकी अध्याय-सूची अथवा विषय-सूचीसे सम्बंध रखती है और - वह यह है कि इस खंडके पहले अध्यायमें क्रमशः कथन करनेके लिए, जो अध्यायों अथवा विषयोंकी सूची दी है उसमें ग्रहयुद्ध के बाद. f वातिक' और वातिकके बाद 'स्वप्न' का विषय कथन करना लिखा . है । यथा:
* गन्धर्वनगरं गर्भान् यात्रोत्पातांस्तथैव च । ग्रहचारं पृथक्त्वेन ग्रहयुद्धं च कृत्स्रशः ॥ १६ ॥ वातिकं चाथ स्वप्नांच मुहूर्ताच तिथींस्तथा । करणानि निमित्तं च शकुनं पाकमेव च ॥ १७ ॥
परन्तु कथन करते हुए ' ग्रहयुद्ध' के बाद ' ग्रहसंयोग अर्धकांढ · नामका एक अध्याय ( नं० २५ ) दिया है और फिर उसके बाद -" स्वमाध्याय ' का कथन किया है । यद्यपि ' ग्रहसंयोग अर्धकांड 'नामका विषय ग्रहयुद्धका ही एक विशेष है और इस लिए श्लोक नं० १६ में - लिये हुए ' कृत्स्नश: ' पदसे उसका ग्रहण किया जा सकता है; परन्तु : इस अध्यायके बाद ' वातिक ' नामके अध्यायका कोई वर्णन नहीं है । स्वप्नाध्यायसे पहले ही नहीं, बल्कि पीछे भी उसका कहीं कथन नहीं है । : इस लिए कथनसे इस विषयका साफ छूट जाना पाया जाता है । इसके आगे, विषय-सूचीमें, श्लोक नं० १७ के बाद ये दो श्लोक और दिये हैं:ज्योतिषं केवलं कालं वास्तु दिव्येन्द्रसंपदा । लक्षणं व्यंजनं चिह्नं तथा दिव्यौषधानि च ॥१५॥
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* इससे पहले विषय-सूचीका निम्नश्लोक और है:उत्का समासतो व्यासान्परिवेषांस्तथैव च । विद्युतोऽत्राणि संध्याच मेघान्वातान्प्रवर्षणम् ॥१५॥