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बलावलं च सर्वेषा विरोधं च पराजयं ।
तत्सर्वमानुपूर्वेण प्रनवोहि महामते ॥ १६ ॥ इन श्लोकोंमें 'बलाबलं च सर्वेषां' इस पदके द्वारा पूर्वकथित संपूर्ण विषयोंके बलावलकथनकी सूचना की गई है; परन्तु कथन करते हुए,. अध्याय २०४१ और ४२ में सिर्फ ग्रहोंका ही बलाबल दिखलाया गया है। शेष किसी भी विषयके बलावलका इन दोनों अध्यायोंमें कहीं. कोई वर्णन नहीं है और न आगे ही इस विषयका कोई अध्याय पाया जाता है। इसलिए यह कथन अधूरा है और प्रतिज्ञाका एक अंश पालन किया गया मालूम होता है। यदि श्लोक नं० १९ को १६ के बाद रक्खा जाय तो "वलावलं च सर्वेषां ' इस पदके द्वारा ग्रहोंके बलावलकथनका बोध हो सकता है । और श्लोक नं. १४ में दिये हुए 'सुखग्राह्यं लघुग्रथं ' इस पदका भी कुछ अर्थ सघ सकता है ( यद्यपि श्रुतकेवलीके सम्बन्धमें लघुग्रंथ होनेकी बात कुछ अधिक महत्त्वकी नहीं समझी जा सकती); परन्तु ऐसा करनेपर श्लोक नं० १७-१८ और उनके कथन-विषयक समस्त अध्यायोंको अस्वीकार करके-ग्रन्थका अंग न मान कर-ग्रंथसे अलग करना होगा जो कभी इष्ट नहीं हो सकता । इस लिए कथन अधूरा है और उसके द्वारा प्रतिज्ञाका सिर्फ एक अंश पालन किया गया है, यही मानना पड़ेगा । इस प्रकारकी और भी अनेक विलक्षण बातें हैं जिनको इस समय यहाँपर छोड़ा जाता है। इन सब विलक्षणोंसे ग्रंथमें किसी विशेष गोल मालकी सूचना होती है जिसका अनुभव पाठकोंको आगे चलकर स्वतः हो जायगा । यहाँ पर मैं इतना जरूर कहूँगा और इस कहने में मुझे जरा भी संकोच नहीं है कि ऐसा असम्बद्ध, अधूरा, अव्यव- . स्थित और विलक्षणोंसे पूर्ण ग्रंथ भद्रबाहु श्रुतकेवली जैसे विद्वानोंका बनाया हुआ नहीं हो सकता। क्यों नहीं हो सकता ? यद्यपि विद्वानोंको इस बातके बतलानेकी जरूरत नहीं है; वे इस ऊप