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अंथ होना पाया जाता है। इतना ही नहीं, इस खंडके पहले अध्यायमें ग्रंथके वननेका सम्बंध (शिष्योंका भद्रबाहुसे प्रश्न आदि) और ग्रंथके (दूसरे खंडके ) अध्यायों अथवा विषयोंकी सूची भी दी है जिससे इस खंडके भिन्न ग्रंथ होनेकी और भी अधिकताके साथ पुष्टि होती है।. अन्यथा, ग्रंथके वननेकी यह सब सम्बंध-कथा और संहिताके पूरे अध्यायों वा विषयोंकी सूची पहले संडके शुरूमें दी जानी चाहिए, जहाँ वह नहीं दी गई। यहाँपर खसूसियतके साथ एक खंडके सम्बंध वह असम्बद्ध मालूम होती है। दूसरे खंडमें भी इतनी विशेषता और है कि वह संपूर्ण खंड किसी एक व्यक्तिका बनाया हुआ मालूम नहीं होता । उसके आदिके २४ या ज्यादहसे ज्यादह २५ अध्यायोंका टाइप और साँचा, दूसरे अध्यायोंसे भिन्न एक प्रकारका है। वे किसी एक व्यक्तिके बनाये हुए जान पड़ते हैं और शेप अध्याय किसी दूसरे तथा तीसरे व्यक्तिके । यही वजह है कि इस खंड में शुरूसे २५ वें अध्यायतक तो कहीं कोई मंगलाचरण नहीं हैपरन्तु २६ वें अध्यायसे उसका प्रारंभ पाया जाता है, जो एक नई और विलक्षण बात है + । आम तौर पर जो ग्रंथकर्ता ग्रंथोंमें मंगलाचरण करते हैं वे ग्रंथकी आदिमें उसे जरूर रखते हैं। एक ग्रंथका होनेकी हालतमें यह कभी संभव नहीं कि ग्रंथकी आदिमें मंगलाचरण न दिया जाकर ग्रंथके मध्य भागसे भी पीछे उसका प्रारंभ किया जाय । इसके सिवाय इन अध्यायोंकी संधियोंमें प्रायः ' इति ' शब्दके बाद “नथे भद्रबाहुके निमिते" ऐसे विशेष पदोंका प्रयोग पाया जाता है, जो २६ वें अध्यायको छोड़कर संहिता भरमें और किसी भी अध्यायके साथ देखने में नहीं आता और इसलिए यह भेद-भाव भी बहुत खटकता'
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४ २६ वें अध्यायका वह मंगलाचरण इस प्रकार है:
नमस्कृत्य महावीरं सुरासुरनमस्कृतम् । स्वप्नान्यहं प्रवक्ष्यामि शुभाशुभसमीरितम् ॥ १॥