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ही उठाकर रक्खे गये हैं, तो भी उन पिछले अध्यायोंको फलाध्याय नाम नहीं दिया गया । इसलिए कहना पड़ता है कि यह नामकरण भी ठीक नहीं हुआ । इसके सिवाय ग्रंथके आदिमें मंगलाचरणपूर्वक जो प्रतिज्ञा-वाक्य दिया है और जिसे संपूर्ण ग्रंथके लिए व्यापक समझना चाहिए वह इस प्रकार है:
गोवर्धनं गुरुं नत्वा दृष्ट्वा गौतमसंहिताम् ।
वर्णाश्रमस्थितियुतां संहिता वर्ण्यतेऽधुना ॥३॥ अर्थात्-'गोवर्धन ' गुरुको नमस्कार करके और 'गौतमसंहिता' को देखकर अव वौँ तथा आश्रमोंकी स्थितिवाली संहिताका वर्णन किया जाता है।
इस प्रतिज्ञा-वाक्यमें 'अधुना' (अब ) शब्द बहुत खटकता है और इस बातको सूचित करता है कि ग्रंथमें पहलेसे कोई कथन चल रहा है जिसके बादका यह प्रकरण है; परन्तु ग्रंथमें इससे पहले कोई कथन नहीं है । सिर्फ मंगलाचरणके दो श्लोक और दिये हैं जो नत्वा'
और 'प्रणम्य ' शब्दोंसे शुरू होते हैं और जिनमें कोई अलग प्रतिज्ञावाक्य नहीं है । इस लिए इन दोनों श्लोकोंसे सम्बंध रखनेवाला यह 'अधुना ' शब्द नहीं हो सकता। परन्तु इसे रहने दीजिए और ख़ास प्रतिज्ञा पर ध्यान दीजिए । प्रतिज्ञामें संहिताका अभिधेय-संहिताका उद्देश-वर्णों और आश्रमोंकी स्थितिको वतलाना प्रगट किया है । इस अभिधेयसे दूसरे तीसरे खंडोंका कोई सम्बंध नहीं, खासकर दूसरा 'ज्योतिषखंड ' बिलकुल ही अलग हो जाता है और वह कदापि इस वर्णाश्रमवती संहिताका अंग नहीं हो सकता । दूसरे खंडके शुरूमें, 'अथ भद्रवाहुसंहितायां उत्तरखंडः प्रारभ्यते' के बाद 'ॐनमः सिद्धेभ्यः, श्रीभद्रवाहवे नमः । ये दो मंत्र देकर, 'अथ भद्रबाहुकृतनिमित्तग्रंथः लिख्यते । यह एक वाक्य दिया है । इससे भी इस दूसरे खंडका अलग