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द्योतयंती दिशः सर्वा यदा संध्या प्रदृश्यते ।
महामेघस्तदा विद्याद्भद्रबाहुवचो यथा ॥ ७-१६॥ इस संपूर्ण कथन और कथन-शैलीसे मालूम होता है कि यह ग्रंथ अथवा कमसे कम इसका दूसरा खंड भले ही भद्रबाहुश्रुतकेवलीके वचनानुसार लिखा गया हो; परन्तु वह खास भद्रबाहु श्रुतकेचलीका बनाया हुआ नहीं है और चूंकि ऊपर भद्रबाहुके कथनके साथ "प्रोवाच-उवाच ऐसी परोक्षभूतकी क्रियाका प्रयोग किया गया है, जिसका यह अर्थ होता है कि वह प्रश्नोत्तररूपकी संपूर्ण घटना ग्रंथकर्ताकी साक्षात् अपनी आँखोंसे देखी हुई नहीं है-वह उस समय मौजूद ही न था-उससे बहुत पहलेकी बीती हुई वह घटना है। इसलिए यह ग्रंथ भद्रबाहु श्रुतकेवलीके किसी साक्षात् शिष्य या प्रशिष्यका भी बनाया हुआ नहीं है । इसका सम्पादन बहुत काल पीछे किसी तीसरे ही व्यक्तिद्वारा हुआ है,जिसके समयादिकका निर्णय आगे चलकर किया जायगा । यहाँ पर सिर्फ इतना ही समझना चाहिए कि यह ग्रंथ भद्रबाहुका बनाया हुआ या भद्रबाहुके समयका बना हुआ नहीं है।
२ द्वादशांग वाणी अथवा द्वादशांग श्रुतके विषयमें जो कुछ कहा जाता है और जैनशास्त्रोंमें उसका जैसा कुछ स्वरूप वर्णित है उससे मालूम होता है कि संसारमें कोई भी विद्या या विषय ऐसा नहीं होता जिसका उसमें पूरा पूरा वर्णन न हो और न दूसरा कोई पदार्थ ही ऐसा शेष रहता है जिसका ज्ञान उसकी परिधिसे बाहर हो । इसलिए संपूर्ण ज्ञान-विज्ञानका उसे एक अनुपम भंडार समझना चाहिएं । उसी द्वादशांग श्रुतके असाधारण विद्वान् श्रुतकेवली भगवान होते हैं। उनके लिए कोई भी विपय ऐसा बाकी नहीं रहता जिसका ज्ञान उन्हें द्वादशांगको छोड़करें किसी दूसरे ग्रंथ द्वारा सम्पादन करना पड़े । इसलिए उन्हें संपूर्ण विषयोंके पूर्ण ज्ञाता समझना चाहिए । वे, जाननेके मार्ग प्रत्यक्ष परोक्ष