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(२१) . ऐरावताच काश्मीरा हया अष्टादशस्मृताः ।
तेषां च लक्षणान्यूचे नीतिविचंद्रवाहनः ॥ १२६ ॥ इस कथनसे पाया जाता है कि ग्रंथकर्ता (भद्रबाहु )ने चंद्रवाहनके कथनको द्वादशांगके कथनसे उत्तम समझा है और इसी लिए उसके देखनेकी प्रेरणा की है। . (ख) तीसरे खंडमें 'शांतिविधान' नामका १० वाँ अध्याय है, जिसमें दो श्लोक इस प्रकारसे पाये जाते हैं:
परिभाषासमुद्देशे समुद्दिष्टेन लक्षणात् । तन्मध्ये कारयेत्कुंडं शांतिहोमक्रियोचितं ॥ १५॥ हुताशनस्य मंत्रज्ञः क्रियां संधुक्षणादिकां ।
विदध्यात्परिभाषायां प्रोकेन विधिना क्रमात् ॥१६॥ इन दोनों श्लोकोंमें परिभाषासमुद्देश' नामके किसी ग्रंथका उल्लेख है। पहले श्लोकमें परिभाषासमुद्देशमें कहे हुए लक्षणके अनुसार होमकुंड बनानेकी और दूसरेमें उक्त ग्रंथमें कही हुई विधिके अनुसार संधुक्षणादिक (आग जलाना आदि) क्रिया करनेकी आज्ञा है । इसी खंडके छठे 'अध्यायमें, यंत्रोंकी नामावली देते हुए, एक-यंत्रराज ' नामके शास्त्रका भी उल्लेख किया है और उसके सम्बंधमें लिखा है कि, इस शास्त्रके जानने मात्रसे बहुधा निमित्तोंका कथन करना आजाता है । यथाः-..
यंत्रराजागमे तेषां विस्तारः प्रतिपादितः।
येन विज्ञानमात्रेण निमित्तं वहुधा वदेत् ॥ २६ ॥ - ये दोनों ग्रंथ (परिभाषासमुद्देश और यंत्रराज ) द्वादशांग 'श्रुतका कोई अंग न होनेसे दूसरे ही विद्वानोंके बनाये हुए ग्रंथ मालूम होते हैं, जिनका यहाँ आदरके साथ उल्लेख किया गया है और जिनका यह उल्लेख, ग्रंथकर्ताकी दृष्टिसे, उनमें द्वादशांगसे किसी विशिष्टताका होना सूचित करता है।