Book Title: Granth Pariksha Part 02
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 28
________________ (२०) भेदको छोड़कर समस्त पदार्थोंको केवल ज्ञानियोंके समान ही जानते और अनुभव करते हैं । ऐसी हालत होते हुए, श्रुतकेवलीके द्वारा यदि कोई ग्रंथ रचा जाय तो उसमें केवलज्ञानीके समान, उन्हें किसी आधार या प्रमाणके उल्लेख करनेकी जरूरत नहीं है और न द्वादशांगको छोड़कर दूसरे किसी ग्रंथसे सहायता लेनेहीकी जरूरत है। उनका वह ग्रंथ एक स्वतंत्र ग्रंथ होना चाहिए । उसमें, खंडनमंडनको छोड़कर, यदि आधार प्रमाणका कोई उल्लेख किया भी जाय--अपने प्रतिपाद्य विषयकी पुष्टिमें किसी वाक्यके उद्धृत करनेकी जरूरत भी पैदा हो, तो वह केवली और द्वादशांगश्रुतको छोड़कर दूसरे किसी व्यक्ति या ग्रंथसे सम्बंध रखनेवाला न होना चाहिए। ऐसा न करके दूसरे ग्रंथों और ग्रंथकर्ताओंका उल्लेख करना, उनके आधार पर अपने कथनकी रचना करना, उनके वाक्योंको उद्धृत करके अपने ग्रंथका अंग बनानां और किसी खास विषयको, उत्तमताकी दृष्टिसे, उन दूसरे ग्रंथों में देखनेकी प्रेरणा करना, यह सब काम श्रुतकेवली-पदके विरुद्ध ही नहीं किन्तु उसको बट्टा लगानेवाला है। ऐसा करना, श्रुतकेवलाके लिए, केवली भगवान् और द्वादशांग श्रुतका अपमान करनेके बराबर होगा, जिसकी श्रुतकेवली जैसे महर्षियों द्वारा कभी आशा नहीं की जा सकती। चूंकि इस ग्रंथमें स्थानस्थान पर भद्रबाहुका ऐसा ही अयुक्ताचरण प्रगट हुआ है इससे मालूम होता है कि यह ग्रंथ भद्रबाहु श्रुतकेवलीका बनाया हुआ नहीं है । नमूनेके तौरपर यहाँ उसका कुछ थोड़ासा परिचय दिया जाता है । विशेष विचार यथावंसंर आगे होगाः . : (क) दूसरे खंडके ३७ वें अध्यायमें, घोड़ोंका लक्षण वर्णन करते. हुए, घोड़ोंके अरबी आदि १८ भेद बतलाकर लिखा है कि, उनके लक्षण नीतिके जाननेवाले 'चंद्रवाहन'ने कहे हैं। यथा:- . .

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