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एस धम्मो सनंतनो
सपने खुले बाजार। दूर के ऊंचे पहाड़ों में, खुलते रहे गुमनाम दिशा-द्वार। संन्यासी तन ने चुपचाप, सब झेल लिया। आए न पिया। झीलों का दर्पण गहरा गया। खड़ा-खड़ा ऊंघता रहा गगन माटी से फूल के दुलार को, लुटा-लुटा देखता रहा चमन। बनजारे मन ने दुख भी जिया, सुख भी जिया।
आए न पिया। जिसकी तलाश है, वह मिलता नहीं। दुख मिल जाता है, सुख मिल जाता है; जिसकी तलाश है, वह मिलता नहीं।
बनजारे मन ने दुख भी जिया, सुख भी जिया।
आए न पिया। अकेलापन भरता नहीं, मिटता नहीं।
दुख तुम्हें बार-बार चोट करके जगने की सूचना देता है। दुख जैसे अलार्म है कि उठो, बहुत सो लिए। जगो, बहुत सो लिए। जगो, बहुत स्वप्न देख लिए। सुबह हो गयी। दुख जगाता है। और अगर तुम दुख से जाग जाओ, तो दुख के प्रति तुम्हारे मन में अनुग्रह का भाव होगा। और उन सब के प्रति भी, जिन्होंने तुम्हें दुख दिया।
इसलिए शत्रुता मिट जाती है जागे हुए पुरुष की। किससे शत्रुता? सब ने साथ दिया। अपनों ने साथ दिया सो दिया ही, परायों ने भी साथ दिया। परायों ने दुख दिए सो दिए ही दिए, अपनों ने भी दुख दिए। सब ने साथ दिया; सब ने जगाया; सब ने झंझोड़ा। किसी ने सोने न दिया।
जिस दिन तुम जागोगे, उस दिन धन्यवाद का भाव होगा- उन सब के प्रति, उन सब स्थितियों के प्रति-जिन में कभी तुम बड़े बेचैन हुए थे, बड़े तिलमिलाए थे। उनके प्रति भी तुम कहोगे कि धन्यभागी हूं। क्योंकि वह न होता, तो यह जागरण भी न होता।
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