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धर्म का सार-बांटना क्यों? दे गया होगा किसी संवेग के क्षण में।
इस बात को खयाल में लेना। अक्सर संवेग का क्षण होता है। किसी की वाणी सुनी, तगरशिखी को सुना होगा, उनके अपूर्व वचन! भाव में आ गया होगा, संवेग में आ गया होगा। उस संवेग के क्षण में ही बोल गया होगा खड़े होकर-कि चलो, इतना दान करता हूं। वह भावाविष्ट दशा रही होगी। जब घर लौटा होगा, तब रास्ते में सोचा होगाः यह मैं क्या कर गया!
मार्क ट्वेन ने लिखा है कि मैं एक चर्च में व्याख्यान सुनने गया। दस मिनट तक सुना। ऐसा व्याख्यान मैंने कभी सुना नहीं था। बड़ा अपूर्व था। सौ डालर मेरे खीसे में थे। मैंने सोचा कि आज सौ ही डालर दान दे दूंगा। ___ जैसे ही यह सोचा कि सौ ही डालर दान दे दूंगा; मन में हजार शंकाएं-कुशंकाएं उठने लगीं। कि हो सकता है, यह आदमी सिर्फ बोलने में कुशल हो! हो सकता है कि यह सिर्फ बातचीत ही बातचीत हो, भाषा का ही जाल हो, शैली का ही प्रभाव हो। नहीं; सौ ज्यादा हैं; पचास से काम चल जाएगा।
जब से सौ देने का विचार किया, तब से सुनना तो बंद ही हो गया, क्योंकि वह भीतर विचार चलने लगा ः पचास से ही काम चल जाएगा। अब सुनने में ठीक-ठीक रस भी नहीं आ रहा था, क्योंकि देने का भाव पैदा हो गया था। अब तो घबड़ाहट होने लगी।
और दस मिनट सुना। उसने सोचा कि नहीं, पचास के लायक यह आदमी नहीं! तुम हमेशा अपने मन का हिसाब खोज लेते हो। पच्चीस से काम चल जाएगा!
घंटे पूरे होते-होते तो वह आ गया दो डालर पर! और उसने लिखा है कि फिर मैं निकल भागा वहां से-कि कहीं ऐसा न हो कि जब दान को बटोरने वाली थाली मेरे पास आए, तो मैं उसमें से कुछ निकाल लूं। जब सौ से दो पर आ गया, तो कितनी देर लगेगी निकालने में! और डर इतना लगा कि-मार्क ट्वेन ने लिखा कि मैं निकल भागा इसके पहले कि थाली आए; नहीं तो उलटे पाप हो जाए कुछ!
. संवेग का क्षण था। दस मिनट के बाद अगर उसने दे दिया होता, तो सौ डालर दे दिए होते। लेकिन पछताता फिर। घर पहुंचते-पहुंचते रोता—कि यह भी क्या भूल कर ली! मैं भी कैसे सम्मोहन में पड़ गया! मेरे जैसा बुद्धिमान आदमी! और धोखे में आ गया!
यह धनपति बुद्ध को दान दिया, जिसके फलस्वरूप उसे इतनी धन-संपत्ति मिली। इस धन-संपत्ति को जो तूने सात दिन तक बैलगाड़ियों में ढोया है, यह उस एक छोटे से बीज से पैदा हुई। ___ दो-बहुत मिलता है। जो दोगे-वही मिलता है। जितना दोगे, उससे अनंत गुना मिलता है। और जरूरी नहीं है कि तुम जाकर मंदिर में दो, कि मस्जिद में दो; जहां देना हो, वहां दो। पत्नी को दो, बच्चों को दो, पड़ोसियों को दो, मित्रों को दो।
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