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एस धम्मो सनंतनो
आदमी को देखकर ही आ गया था। यह दुष्ट कहां से आ गया ! यह कंकड़ की तरह पड़ा और सब पुरानी तरंगें उठने लगीं। मैं तो सोचता था, गया सब । और इसको देखकर सब याद आने लगा !
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तुमने कभी - कभी खयाल किया होगा । पुराने परिचित मिल जाएं, तो तत्क्षण तुम पुराने हो जाते हो । बीस साल पहले का परिचित मिल जाए, तो स्वभावतः उससे बात वहीं से करनी पड़ती है, जहां बीस साल पहले विदा हुए थे। तत्क्षण तुम बीस साल पहले लौट जाते हो ।
इस आदमी को देखकर मुनि फिर अपनी पुरानी दुनिया में लौट गया। वह सब भरा तो पड़ा था भीतर, आगार में - वह सब उभरने लगा। क्रोध तो देखकर ही इस आदमी को आने लगा था। इसके चेहरे को देखकर ही चांडाली छूट रही थी। यह किसी तरह जाए! और अब यह दुष्ट और चोटें करने लगा ! इसने फिर पूछा कि आपका नाम क्या है महाराज ! तो उन्होंने कहा : मैंने एक दफा कह दिया, समझे नहीं ? शांतिनाथ ! बहरे हो ?
वह आदमी फिर इधर-उधर की बात करता रहा। फिर उसने तीसरी बार पूछा कि क्षमा करिए! मैं भूल गया !
उसका इतना ही कहना था कि मुनि ने अपना डंडा उठा लिया और कहा : सिर तोड़ दूंगा! एक क्षण को सब भूल गए ।
उस मित्र ने कहा : मैं पहचान गया शांतिनाथ जी ! आप वही के वही हैं। कहीं कोई फर्क नहीं हुआ है।
तुम विपरीत हो सकते हो, लेकिन विपरीत से फर्क नहीं होता। जब तुम सम होते हो, तब फर्क होता है । सम में क्रांति है।
हमारे पास अच्छा शब्द है- - संक्रांति। वह क्रांति और सम से मिलकर बना है। वह क्रांति से ज्यादा बहुमूल्य है । क्रांति तो एक कोने से दूसरे कोने पर चला जाना है । अमीर थे, गरीब हो गए। सुंदर कपड़े पहनते थे, नग्न हो गए। धन के अतिरिक्त और किसी चीज में रस नहीं था, तो धन को छूना भी बंद कर दिया। यह क्रांति है।
संक्रांति क्या है ? संक्रांति है मध्य में हो जाना । न इस तरफ रहे, न उस तरफ। न त्यागी, न भोगी । जब दोनों न रहे, तब जो घटना घटती है, वह समता।
दमन से नहीं घट सकती। दमन कैसे संवर बनेगा ? दमन तो संवर कभी नहीं बन सकता। इसलिए संवर और संयम - दमन का नाम नहीं है।
दमन तो भोग का ही विपरीत रूप है। यह भोग ही है जो शीर्षासन करने लगा। इसमें जरा अंतर नहीं है। इसे तुम समझोगे, तो ये सूत्र तुम्हें साफ होंगे।
भगवान के जेतवन में विहरते समय पांच ऐसे भिक्षु थे जो पंचेंद्रिय में से एक-एक का संवर करते थे ।
वह संवर नहीं रहा होगा, दमन ही रहा होगा। संवर होता, तो विवाद न उठता।
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