Book Title: Dhammapada 11
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 331
________________ एस धम्मो सनंतनो गहन अंधेरे में सुन रहे हो। __ प्रकाश से जो जन्मा है, अंधेरे मन तक पहुंचते-पहुंचते कुछ का कुछ हो जाता है। फिर जो तुम सुनते हो, उसी से शास्त्र निर्मित होते हैं। फिर तुम जो सुनते हो, उसी से संप्रदाय बनते हैं। तुम्हारे सुने हुए को तुम बुद्धों का कहा हुआ मत समझना। इसी कारण प्रश्न उठ गया। जैन धर्म का अर्थ, महावीर ने जो कहा, वह नहीं; क्योंकि महावीर को तो समझने के लिए महावीर होना पड़े। अपनी चेतना के तल से ऊपर की बात तब तक नहीं समझी जा सकती, जब तक चेतना का तल न उठ जाए। एक छोटा बच्चा भी सुन लेता है। संभव है कि कोई आदमी प्रेम की महिमा गा रहा हो। एक छोटा सा बच्चा भी सुन लेता है। लेकिन छोटा बच्चा प्रेम को कैसे समझे? अभी तो उसकी वासना के स्रोत जगे नहीं, सोए हैं। तुम एक छोटे बच्चे को ले जा सकते हो खजुराहो के मंदिर में। वह देखेगा नग्न स्त्री-पुरुषों की मूर्तियां। देखेगा जरूर, लेकिन उसके भीतर कोई भाव इससे पैदा नहीं होगा। शायद पूछेगा कि यह क्या है! लेकिन तुम काम को या संभोग को उसे समझा न सकोगे। वह तो जवान होगा, तभी समझ पाएगा। जब प्रौढ़ होगा, तभी समझ पाएगा। जो काम के संबंध में सच है, वही धर्म के संबंध में भी सच है। धर्म को समझने के लिए भी एक प्रौढ़ता चाहिए—ध्यान की प्रौढ़ता। जब ध्यान का रस पक जाता है, तो ही समझ पाते हो। महावीर को जिन्होंने सुना, उन्होंने अपने ढंग से समझा। उस ढंग के आधार पर जैन-धर्म निर्मित हुआ। यह जैन-धर्म जराजीर्ण उसी दिन होना शुरू हो गया, जिस दिन बनना शुरू हुआ। इसकी मौत तो उसी दिन शुरू हो गयी, जिस दिन यह जन्मा। हालांकि जैन सोचता है : इसका संबंध महावीर से है। बौद्ध सोचता है : इसका संबंध बुद्ध से है। ईसाई सोचता है : इसका संबंध जीसस से है। कोई संबंध नहीं है। जरा भी संबंध नहीं है। अफवाहें हैं, लोगों ने जो सुनी हैं। जो मूल है, खो गया। खो ही जाएगा। उस मूल को सुनने के लिए एक और तरह की प्रतिभा, एक और तरह की प्रज्ञा चाहिए। ध्यान से उज्ज्वल बुद्धि चाहिए। ध्यान में नहाया हुआ चैतन्य चाहिए। बुद्ध को समझने के लिए बुद्ध होना पड़े। कृष्ण को समझने के लिए कृष्ण होना पड़े। इसलिए बुद्ध ठीक ही कहते हैं कि संतों का धर्म कभी जराजीर्ण नहीं होता। और दो संतों का धर्म अलग थोड़े ही होता है, जो जराजीर्ण हो जाए। जो कृष्ण ने कहा है-भाषा अलग है; वही बुद्ध ने कहा है-भाषा अलग है। वही मोहम्मद ने कहा है—भाषा अलग है। स्वभावतः, मोहम्मद अरबी बोलते हैं और बुद्ध पाली बोलते हैं और कृष्ण संस्कृत बोलते हैं। भाषाएं अलग हैं। अलग-अलग समयों में, अलग-अलग प्रतीकों के प्रवाह में, अलग-अलग संकेतों का उपयोग किया है। 318

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