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समाधि के सूत्र : एकांत, मौन, ध्यान भी शुभ है - साधु बनाता व्यक्ति को । घ्राण का संवर भी शुभ है, जीभ का संवर भी शुभ है । '
सब संवर शुभ हैं, क्योंकि संवर व्यक्ति को सरल बनाते हैं, जटिलता से मुक्त कराते हैं। संवर व्यक्ति को एकता देते हैं । नहीं तो पांच इंद्रियां पांच खंडों में तोड़ देती हैं। एक इंद्रिय एक तरफ खींचती है; दूसरी इंद्रिय दूसरी तरफ खींचती है। जब इंद्रियां खींचती ही नहीं, तो व्यक्ति जितेंद्रिय हो जाता है। उस जितेंद्रियता में ही साधुता है।
कायेन संवरो साधु साधु वाचाय संवरो । मनसा संवरो साधु साधु सब्बत्थ संवरो। सब्बत्थ संवुतो भिक्खु सब्बदुक्खा पमुच्चति ।।
'शरीर का संवर शुभ है । वचन का संवर शुभ है । मन का संवर शुभ है। सर्वेन्द्रियों का संवर शुभ है । सर्वत्र संवरयुक्त भिक्षु सारे दुखों से मुक्त हो जाता है।'
'शरीर का संवर शुभ है । वचन का संवर शुभ है।'
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शरीर के संवर का अर्थ होता है—अकेले होने की क्षमता का आ जाना। यह संवर की पहली परिधि, एकांत में जीने का मजा ।
तुमने देखा, एकांत काटता है! जब तुम घर में अकेले रह जाते हो, हजार मन उठने लगते हैं: कहां जाऊं ? सिनेमा चला जाऊं; होटल चला जाऊं; किसी क्लब में चला जाऊं ; पड़ोसी के घर चला जाऊं - कहां चला जाऊं ?
क्या कारण है? किसलिए सिनेमा जा रहे हो ? किसलिए पड़ोसी के घर जा रहे हो ? किसलिए क्लब जा रहे हो ? अकेले होने की क्षमता नहीं है। दूसरे चाहिए। दूसरे रहते हैं, तो तुम दूसरों में उलझे रहते हो ।
शरीर के संवर का अर्थ है : अकेले होने की क्षमता, एकांत की क्षमता। और इसका यह अर्थ नहीं कि तुम जाओ, हिमालय की किसी गुफा में बैठो । यहीं, बाजार में चलते-चलते भी तुम चाहो तो अकेले हो सकते हो। और गुफा में बैठकर भी चाहो तो भीड़ में हो सकते हो ।
गुफा 'में बैठकर भी अगर लोगों के संबंध में सोच रहे हो, तो यह शरीर का संवर न हुआ। और राह में चलते हुए, बाजार में चलते हुए भी अगर किसी के संबंध में नहीं सोच रहे हो; शांत, मौन से चल रहे हो; संतुलित अपने भीतर आरूढ़ - तो संवर है।
शरीर का संवर यानी एकांत की क्षमता । वचन का संवर यानी मौन की क्षमता, चुप होने की क्षमता |
वचन दूसरे से जोड़ता है। तो वचन सेतु है संबंधों का। अगर वचन से मुक्त होने की क्षमता हो ... । इसका यह अर्थ नहीं कि तुम बोलो ही मत। इसका यही अर्थ
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