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एस धम्मो सनंतनो
है कि जब जरूरी हो, अत्यंत जरूरी हो, तो बोलो।
बोलने में आदमी को वैसा ही संयम होना चाहिए जैसा जब तुम तार करते हो, तो सोचते हो यह शब्द काट दं. यह शब्द काट दूं। यह ज्यादा, यह ज्यादा। क्योंकि नौ ही शब्द जा सकेंगे; ये दस हो गए, तो एक और काट दूं। और तुमने एक मजा देखा! कि चिट्ठी से तार का परिणाम ज्यादा होता है! चिट्ठी में तुम्हें जो दिल में आता है, लिखते हो। दस पन्ने लिख डालते हो। उसी की वजह से जो तुम लिखते हो, उसकी त्वरा चली जाती है। जो तुम लिखते हो, उसमें बल नहीं रह जाता। जो तुम लिखते हो, उसकी सघनता और चोट खो जाती है।
__ तार के दस शब्दों में बड़ी सघनता, इंटेंसिटि आ जाती है। शब्द काटते जाते हैं—यह भी गैर-जरूरी, यह भी गैर-जरूरी। फिर जो जरूरी-जरूरी रह गया, उसका वजन बढ़ जाता है। इसलिए तार का परिणाम होता है। तार की चोट होती है।
वचन के संवर का अर्थ है : जितना जरूरी हो, उतना बोलने की क्षमता। क्षमता क्यों कहते हैं इसे? क्योंकि तुम अकारण बोलते हो; बोलने में अपने को उलझाते हो। बोलना एक तरह का उलझाव है, व्यस्तता है।
जो मिला, उसी से बोलते हो! कुछ भी बोलते हो। वह भी कुछ बोल रहा है; तुम भी कुछ बोल रहे हो। कुछ नहीं होता, तो मौसम की ही बात करते हो! उसको भी पता है; तुमको भी पता है। लेकिन कर रहे बात! वह भी वही अखबार पढ़ा है, जो तुम पढ़े हो। उसी की बात कर रहे! लेकिन कुछ न कुछ बात करनी है। और जिन बातों को तुम हजार बार कर चुके हो, वही बात फिर दोहरा रहे हो।
वचन की क्षमता का अर्थ है : जरूरी बोलना, गैर-जरूरी नहीं बोलना। फिर मन का संवर। मन का संवर है : भीतर का मौन।
एक तो बाहर का मौन है-व्यर्थ न बोलना। और फिर एक भीतर का मौन है-व्यर्थ न सोचना। ऐसे धीरे-धीरे एकांत बढ़ता है। पहले बाहर से, भीड़ से मुक्त हो जाओ। फिर शब्दों से मुक्त। फिर मन की तरंगों से मुक्त। तब सर्वेन्द्रियों का संवर सध जाता है। आदमी जितेंद्रिय हो जाता है।
'सर्वत्र संवरयुक्त भिक्षु सारे दुखों से मुक्त होता है।'
हत्थसञ्चतो पादसञतो वाचाय सञतो सचतुत्तमो। अज्झत्तरतो समाहितो एको संतुसितो तमाहु भिक्खं ।।
'जिसके हाथ, पैर और वचन में संयम है, जो उत्तम संयमी है, जो अध्यात्मरत, समाहित, अकेला और संतुष्ट है, उसे भिक्षु कहते हैं।'
बुद्ध ने बहुत जोर दिया है इस बात पर कि चलो भी तो संयम रखना। चलने में कैसा संयम? होशपूर्वक चलना। एक पैर भी उठाओ, तो याद रहे कि मैंने यह पैर
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