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भीतर डूबो
नहीं तो नहीं जान पाओगे। जो जानकार की तरह गया, जानने से वंचित रह जाएगा। वहां तो जाना निर्बोध, अज्ञानी की भांति । वहां तो उस भाव दशा में जाना, जो कहती है : मुझे क्या पता है ! वहां खुले जाना, तो बहुत कुछ सीख पाओगे। और तब बुद्धों से ही नहीं, किन्हीं से भी सीख सकते हो ।
साधारणजनों का जीवन भी गहन किताबों की तरह है। एक साधारण से आदमी की जिंदगी खोल लो-वेद खोल लिया । और वेद तो पुराना पड़ गया, और यह आदमी अभी ताजा है, नया है। अभी यहां जीवन की रसधार बहती है।
एक साधारण से मनुष्य के जीवन को समझ लो, तुमने सारे शास्त्र समझ लिए । और दूसरे की क्या फिकर करनी। तुम अपने ही जीवन के निरीक्षक बन जाओ, साक्षी बन जाओ, तो तुम्हें वहीं से सारा का सारा मिल जाएगा, जो पाने योग्य है। निश्चित मिल जाएगा। और जो पाने योग्य नहीं है, उसकी कोई जरूरत ही नहीं ।
दूसरा प्रश्न :
मैं न दुख सह पाता हूं, न सुख । हर बात से भयभीत हूं। मृत्यु सेतो हूं ही, जीवन से भी भयभीत हूं। मेरे लिए क्या मार्ग है?
तुम्हारी ही दशा नहीं - सभी की ऐसी दशा है। शुभ है कि तुम्हें इसका बोध हुआ है। तो अब कुछ हो सकता है।
अधिकतर लोग यही सोचते हैं कि दुख नहीं सह पाते हैं । सुख के लिए तो वे हाथ फैलाए खड़े हैं, भिक्षापात्र लिए खड़े हैं। लेकिन सच यही है कि न लोग दुख सह पाते हैं, न लोग सुख सह पाते हैं। क्योंकि सुख भी उत्तेजना है, दुख भी उत्तेजना है। दोनों तोड़ते हैं। और अक्सर ऐसा होता है कि सुख इतना ज्यादा तोड़ता है, जितना दुख ने कभी नहीं तोड़ा।
एक कहानी है : एक आदमी हर महीने एक रुपए की लाटरी का टिकट खरीद लेता था, आदत थी । गरीब आदमी था, दर्जी था। न तो कभी सोचा था कि मिलने वाली है, न कभी आशा बांधी थी । न कभी सपने देखे थे। वर्षों से खरीदता था। वर्षों बीत भी गए थे । न कभी मिली, न मिलने वाली थी। इतना भाग्यशाली अपने को सोचता भी नहीं था कि लाटरी मिल जाए।
लेकिन एक दिन लाटरी मिल गयी। बड़ी कार आकर सामने खड़ी हुई। नोटों के बंडल उतारे गए। दस लाख रुपए उसे मिल गए थे। वह तो भरोसा ही नहीं कर पाया। उसकी आंखें तो एकदम देखने में असमर्थ हो गयीं। सब धुंधलका छा गया। चक्कर आने लगा। दस लाख रुपए! दस रुपए इकट्ठे उस दर्जी को मुश्किल से मिले थे कभी।
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