________________
एस धम्मो सनंतनो
तम भरा गगन धूमिल आंगन प्रति पल भर-भर आते लोचन। जीवन की सांद्र तमिस्रा मेंमैं नित नव ज्योति जलाऊं अलि प्रिय आएंगे। झरता झर-झर वन का निर्झर मेरे पथ की प्रति दिशा मुखर अंतर की टूटी वीणा केमैं नीरव तार सजाऊं अलि
प्रिय आएंगे।
और जो प्रिय इस तरह आते हैं, वे बहुत प्रिय सिद्ध नहीं होते। वे प्रियतम सिद्ध नहीं होते। वासनाओं-तृष्णाओं का जाल ही सिद्ध होता है। जिसकी वस्तुतः राह है, जिस प्रियतम की राह है, वह बाहर के रास्तों से नहीं आता, वह दृश्य की तरह नहीं आता। वह तुम्हारे भीतर द्रष्टा होकर बैठा है। वह तुम्हारे भीतर पहले दिन से ही बैठा है। वही तुम्हारे भीतर धड़कता है। वही तुम्हारी सांस, वही तुम्हारी धड़कन है। वस्तुतः तुम वही हो, जिसकी तुम राह देख रहे हो।
लेकिन तुम भीतर जाते नहीं और मिलन होता नहीं। फिर बाहर की राह देखते-देखते एक न एक दिन अनुभव में आएगा कि न कोई आया, न कोई आता। निराशा सघन हो जाएगी।
अब न कोई साथ मेरे। सुन रही हूं मैं तिमिर की सिसकियों में वह कहानी व्योम भी ढुलका दिया करता जिसे कर याद पानी नैश मेरे नीड़ में लेते न पंछी अब बसेरे! अब न कोई साथ मेरे। दूर तक जा-जा कि सहसा लौट आता मन यहीं फिर आ रहे सुनसान पथ पर मेघ झंझा के सघन घिर
278